कविता

आंख का पानी

नीर बनके आंखो से जो छलछलाए
शायद अब लोगों की आंखों से उड़ गया
रोते को हंसा दे जो पीर
शायद किसी भीड़ में खो गया
मेरी ही आंखे
मेरे ही आंसू
पोंछ लूंगा खुद
मालूम है अब
न कोई आयेगा
इन्हें पोंछने
वक़्त ही कुछ ऐसा है
पलकों के झरोखों से
इनको न चितवन करने दूंगा
जान गए हैं ये जमाने का चलन
दया करुणा अब न रही लोगों में
संवेदना गुम हो गई किसी बस्ती में
बहुत कीमती है मेरे यह मोती
इन्हें अब यूं न बिखरने दूंगा
मैं खुद अपना संबल बनूंगा
किसी से न अब कोई आशा धरूंगा
जब सूख चुका हो लोगों की आंखो का नीर
तो अब अपने नीर का उपहास न मैं होने दूंगा

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020