बूढ़ों का गाँव
यह बूढ़ों का गाँव है, जिसकी सरहदों में पहँुचते ही रोशनी भी अँधेरों को भगाने का अपना हुनर भूल जाती है। ज्येष्ठ में भभकती मिट्टी के ऊपर की गर्म लू ठंडी हवा के झोंकों को निमंत्रण नहीं देती है।
उस गाँव के खेतों के लिए न बारिश की बूँदें ज़मीन से मिलकर नया स्वांग रचती थीं, न फूलों की खुशबू अपनी महक छोड़ती थी। इस गाँव के ऊपर तो अँधेरा भी आना नहीं चाहता था। सुबह की सुनहरी किरणों की मति भ्रष्ट हो जाती थी कि वे बिना मकसद के कहाँ जा रही हैं। यहाँ पगडंडियाँ खुद ही अपना रास्ता भूल जाती हंै, यहाँ के पेड छाँव बाँटने का अपना हुनर भूल जाते हैं, वे हमेशा पतझड़ के बुरे ख़्यालों में डूबे रहते हंै। आम के पेड़ आम इसलिए पैदा नहीं करते कि उनके आमों का रस अगर किसी बच्चे के मुँह को स्वाद न दे पाया, तो फिर उनके होने का क्या मकसद? पक्षी उस गाँव के ऊपर से नहीं उड़ते, गाँव की खड्ड गाँव की सरहद में घुसते ही नवयौवना से बूढ़ी औरत की तरह बन जाती। वह बहने का अपना हुनर भूलकर पत्थरों से टकराकर अपना प्रवाह रोक लेती तो उसके पानी में सड़ाँध पैदा हो जाती। वर्षा की बूँदें वहाँ बरसना नहीं चाहतीं, क्योंकि उन्हें कोई औचित्य नज़र नहीं आता। गाँव की वादी में संगीत की धुन भी अपने स्वर भूलकर नीरसता की धुन की चुनरी ओढ़कर विधवा सी बन जाती थी। आखिर क्या था उस गाँव की चार दीवारी में जिसमें कोई भी जानवर अपने मालिक के साए में रहना नहीं चाहता था। यह बूढ़ों का गाँव है, जिसमें सभी नौजवान, शादीशुदा लड़के अपनी पत्नियों व बच्चों संग अपने रोजगार और आधुनिक इच्छाओं के बहकावे में अपने बूढे मां-बाप को छोड़ शहरों के रंगीन आसमान के नीचे अपने श्वेत और श्याम रंग के सपनों को आसमान से गिरे धरती पर बिखरे कुछ रंगों को चुगकर उन्हें अपने किरायों के घरों मेें सजाने चले गए हैं।
कुछ वर्ष पहले छेत्तू राम ने अपने इकलौते लड़के के घर छोड़ने के समय साफ शब्दों में अपनी इच्छा बता दी, ‘‘भई, ये ज़मीन, ये खेत छोड़कर अब शहर की तंग गलियों में हम सांस न ले पाएंगे, यहीं हमारा गुजर बसर हुआ, इसी गाँव के ऊपर फैले आसमान ने अपनी बूदों से जल बरसाया है। इन्हीं खेतों ने हमारे लिए अन्न पैदा किया है। अब हम इनसे बेवफाई नहीं कर सकते, तुम्हारा नया आसमान चाहे हमारे सपनों और तेरे सपनों का मिश्रण हो, पर अभी भी हमारी आत्मा इसी गाँव की सरहद के पिंजरे में खुशी-खुशी रहना चाहती हैं वैसे भी चाहे गाँव की आबो-हवा में नई खुशबू के फूल लहलहा रहे हैं, पर कहीं-कहीं खेती की माटी की खुशबू हमें हमेशा पुकारती रहती है।
आज सुबह से ही छेत्तू राम पहले एक घर, तो फिर दूसरे घर इसलिए मारा-मारा फिरता रहा कि शाम को गाँव के सारे बूढ़े निक्कू राम के घर में इकट्ठे होंगे, क्योंकि गाँव का आखिरी लड़का भी शहर जाने वाला है नौकरी करने, वह भी अपने परिवार संग नौकरी करने के लिए। छेत्तू राम बस इसी विषय के साथ सबको संदेश दे रहा था कि गाँव के इस आखिरी लड़के का गाँव से बाहर नहीं जाने देना है। अब छेत्तू राम जैसी ही सूबेदार होशियार सिंह घर पहुंचा तो दूसरी ओर होशियार सिंह के मुंह से यही निकला, ‘‘तो फिर अब यह आखिर मुण्डु भी… बस! मुझे यही डर था, अब तो निश्चित ही है कि यह बूढ़ों का गाँव बनकर ही रहेगा।’’
छेत्तू परेशान सा होकर बोला, ‘‘अब सूबेदार साहब! बूढ़ों का गाँव समझो बन ही गया, पर फिर भी एक बार निक्कू के घर जाना तो होगा, आखिर यह रस्म हम कब से निभा रहे हैं। बलैतू, हल्दू, छिनिया, मनंतराम के लड़कों को भी मनाने हम गए तो थे ही, तो फिर आखिर में अब इस निक्कू के घर में भी हो ही आते हैं। अच्छा तो सूबेदार जी, मैं चलता हूं अभी अगले घर भी जाना है, इस उम्र में अब ईश्वर ने जब यह दिन दिखला ही दिया है तो फिर आखिरी उम्मीद को जिंदा रखने के लिए आखिरी कोशिश भी कर लेते हैं। वैसे अभी मैं बलैतू के घर होकर आया हूं तो उसका कहना था कि हमें अब कोई हक नहीं है किसी को समझाने का, क्योंकि हमारे बच्चे भी तो हमें छोड़कर शहर बस गए हैं।’’
रिटायर सूबेदार बोले, ‘‘बात बलैतू की बिल्कुल सही है, जब हम अपने बच्चों को रोक नहीं पाए तो फिर दूसरों के बच्चों को किस मुंह से रोकेंगे। और अब हम किस-किसको रोकते, यह कोई हमारे साथ ही नहीं हुआ, सभी के साथ ऐसा हो रहा है।’’
छेत्तू बोला, ‘‘चाहे अब गाँव की खाली गलियों में सन्नाटा घूमता रहता हो पर उस सन्नाटे को भगाने वाले होशियार सिंह जी आप ही पहले व्यक्ति थे, जिसने सिर्फ गाँव में ही रहने का फैसला किया था। वैसे सूबेदार जी, कसूर तो हमारा है कि पहले हमने अपने नन्हें परिंदों को पाल पोसकर उड़ना सिखाया और जब उन्होंने लंबी उड़ानें उड़ना सीख लिया और उन्हें एक के आगे एक नया आसमान नज़र आया तो उन्होंने अपने घोंसले बदल लिए। उन परिदों के पंख आसमान के क्षितिज को नापने लगे, तो हमने उन्हें सिर्फ परिधि में जकड़े आसमान में रहने की शिक्षा बांटी, पर वे ऐसा न करते हुए उड़ गए दूर अपने-अपने आसमान के नीचे। उन्होंने हमारे आसमान को झुठला दिया। उन्होंने हमारी परंपराओं की बेड़ियों को तोड़ डाला। वे काल की गति को देखते और समझने लगे थे उन्हें उन्नति की नई परिभाषा की रचना करनी थी। प्राचीन और नवीन की वे संधि नहीं कर सके। वे यथार्थ को तो समझ गए, पर हमारे जीवन से दूर हो गए।’’
छेत्तू राम ने अगला घर भी जल्दी में नाप डाला। वह बस एक आशा में बंधा अपनी बूढ़ी हड्डियों को घिसटता जा रहा था।
शाम को चंद बुड्ढे सुबेदार होशियार सिंह के साथ निक्कू राम के घर पर इकट्ठे हो गए। निक्कू राम का लड़का हठ्ठ से भरा अपने कमरे से बाहर निकला, सभी उसकी ओर नज़रें जमाए उसके सामने बैठ गए। निक्कू राम के चेहरे पर चिंता की नदी बह रही थी। उसे इन अनचाहे शुभचिंतकों का आना खल रहा था, पर एक आस के साथ वह भी बंधा था। छेत्तू राम ने बात शुरू करते हुए कह डाला, ‘‘देखो बस एक बार सोच लो हम तुम्हारी तरक्की में बाधा नहीं बनने आए हैं, पर क्या कोई मार्ग नहीं है जो इस गाँव के नए बसते सामाजिक ताने-बाने को बचाए रखे? तुम्हारे जाते ही यह गाँव सिर्फ बूढ़ों का गाँव रह जाएगा। तुम आखिरी लड़के हो मेरे प्रिय! वैसे तुम यह कह सकते हो कि हम अपने लड़कों को तो रोक नहीं पाए और अभी दूसरों को गाँव में रुकने की दुहाई दे रहे हो, पर फिर भी हम ये करना चाहेंगे। निक्कू राम के लड़के के चेहरे पर चिंतन की पतली लकीरें उभरने लगी। पर वह चुप रहा।
सूूबेदार जी बोले- हमारे पास एक और सूत्र है अगर सबको ये पंसद आए, पर मुझे पता है ये प्रलोभन लंबे समय तक शायद काम न करे। मैं ये कहना चाहता हूं कि हम में सभी कुछ रुपये हर महीने निक्कू राम के बेटे को उसकी शहर की कमाई के बराबर दें, ताकि वे यहीं रहकर खेती बाड़ी या अन्य कोई काम करे, इसके लिए हम अपने बच्चों से भी उचित रुपयों की मांग कर सकते हैं। वैसे यह अब समय का नियम हो चाहे विकास की अंधी दौड़, पर इसमें हम सब शामिल हुए है, यह हमारे ही सपनों के बीजों से उगे फल हैं, जिन्हें हम खा भी नहीं सकते।
अभी बात चल ही रही थी कि लँगड़ाते हुए फिल्लू राम ने प्रवेश किया, ‘‘क्या रोणा रोआ दे सारे, पंछी उड़ी गए, अब दो-चार जो सांसें बची हैं उनके सहारे चैन से रह लो। जब गाँव से पहली बार सड़क बनी थी तो सबसे उस मशीन ने पहले तंग रास्ते को ज़मींदोज किया था। भरे पूरे आमों के पेड़ जमीदोज हो गए, गाँव की गोहर ऊपरे बलेटा की गोहर, यहां तक कि कारगू गाँव की गोहर सब खत्म हुई थी। तब तुम्हें लगा कि तुम पता नहीं क्या बन जाओगे। जब गांव मे पहली बार सड़क आई थी, तो हमारे सभी बुजुर्ग उस बड़ी मशीन को देखने गए थे। उनके पीछे मैं भी था, तभी श्यामू ताऊ ने एक ही बात कही थी जो मेरे कानों तक पड़ी थी कि बस जिस तरह से यह मशीन बडे़-बडे़ पेड़ों को जड़ों समेत उखाड़ रही है, ठीक वैसे ही यह गाँव भी जड़ों से उखड़ जाएगा। इसी सड़क से फिर ख्वाहिशों की नदी बहेगी और इसी नदी में हम गाँव वाले बहने शुरू हो जाएँगे। पहले तो हमारी सन्तानें इस नदी में उभरती सुन्दर किश्तियों में बैठकर लम्बी यात्राओं पर निकल जाएँगी। आखिर निक्कू राम का लड़का सारे प्रलोभनों को ठुकराकर शहर निकल गया था।
बूढ़ों के गांव के नाम की तख्ती सड़क के किनारे देखकर हैरानी से कुछ लोग कभी कभार गाँव की सरहद में आ धमकते थे। ये चाहे गाँव में सबके बाल काटने वाला नाई हो, या फिर गाँव में कुछ एक के घर दूध देने वाला हो, या फिर गाँव के पास की सड़क से गुजरने वाला गाड़ियों का हार्न हो।
बूढ़ो के गांव में नौजवान कंबल बेचने वाले ने प्रवेश किया। गाँव का सन्नाटा उसे चिल्लाता हुआ गाँव में घुसने से रोक रहा था, पर उसके कदम नहीं रुके। उसकी पहली मुलाकात फिर छेत्तू राम से हो गई, जो हमेशा गाँव के पहरेदार का रोल अदा करता है। बस नौजवान के कंबल तो बिकने ही थे पर साथ में उसके लिए एक सुनहरा अवसर भी मिल चुका था, जिसकी उसने कभी उम्मीद भी न की होगी। छेत्तू ने अपना प्रलोभन जाहिर कर दिया, बात ऐसे ही भाई, जिस गाँव में तुमने प्रवेश कर दिया है वह कोई आम गाँव नहीं है यह तो बूढ़ो का गाँव है। अभी यहां तुम्हारा इतना मान सम्मान होगा, जो शायद तुम्हें किसी और सभ्यता में जाने पर भी नहीं होगा। तुम यहीं रह लो, सुबह-शाम गाँव से कंबल बेचने चले जाया करो, बस तुम हमारी स्थिति समझ गए हो न। तुम फायदे में रहोगे, तुम्हारा विवाह भी इसी गाँव से हो जाएगा, तुम्हें रहने व खाने-पीने की कोई समस्या न होगी। तुम्हारा इज़्ज़त मान रहेगा, बस फ़ैसला कर लो, न तुमसे कोई किराया लेगा और तुम सब परिवारों के सदस्य बनकर रहोगे।’’
कंबल वाला जहाँ भी गया उसे ऐसा लगा जैसे वह किसी का मेहमान हो, कंबल चाहे बिके या न बिके पर उसकी सेवा में कोई कमी न हुई, उसके लिए हर किसी ने प्रलोभन दिया। कंबल वाले को वहाँ से भागने में देर न लगी।
फिर गाँव की फिदा बदलने लगी। नेपाली परिवार अपने चार बच्चों संग गाँव की सरहद में अपने लिए ज़मीन तलाशने की लालसा से प्रवेश कर चुका था। बस जैसे बूढ़ांे के गाँव में उत्सव की फिजा फैल गई, उनका स्वागत इस तरह से होने लगा जैसे वे भगवान के भेजे दूत हों। उधर नेपाली दीना राम और पत्नी कुमली को समझ नहीं आ रहा था कि जैसे वे बलि के बकरे हों, जिन्हें मारने से पहले खिलाया पिलाया जा रहा है, बच्चों के हाथ उन पुराने खिलौने से भर चुके थे जिन्हें इन बूढ़ों के नाती-नातिनियां छोड़ गए थे। ये बात तो तब समझ लगी जब नेपाली परिवार ने चहुं ओर बंजर खेतों को देखा। उजाड़ गाँव में उजड़े खेत न हो, यह भला कैसे हो सकता है। नेपाली परिवार को भी वहाँ से भागने में देर न लगी।
जब एक के बाद एक उनके प्रयास खत्म हो गए और उन्हें यह अहसास हो गया कि यह अँधियारा सचमुच में ही उनके आसमान के नीचे झोंपड़ी बनाकर रहने आ चुका है, तो फिर छेतू राम ने आखि़री फै़सला ले लिया कि बस आज से कोई भी किसी भी बाहरी व्यक्ति, मजदूर के गाँव में आने पर परेशान न होगा। उन्हें इस इच्छा का परित्याग करना होगा कि गांव फिर से आबाद होगा। सबको अपनी किस्मत को मंजूर करना होगा। छेतू की बात से कोई सहमत नहीं हुआ। सभी ने कहा कि वे इस इच्छा का परित्याग नहीं कर सकते। यह उनका कर्म है कि वे मरते दम तक उन सबका इंतजार करेंगे, ईश्वर कभी तो उन्हें वापिस भेजेगा। चाहे इच्छाएं राख में दफन हो गईं, पर इसके बावजूद उस दिन से चाँद की रोशनी उस गाँव की धरती पर से अपनी छटा को समेट कर किसी और पगडंडी से चोरी छिपे गुजरने लगी।
समय आगे बढ़ा और एक खबर ने पूरी मानव जाति को हिलाकर रख दिया। यह था विश्व व भारत में कोरोना वायरस के कारण फैलने वाली महामारी और देश व प्रदेश में शुरू हो गया लाॅकउाउन। बस लाॅकउाउन की खबर के बाद बूढ़ों के गांव के ऊपर नीला आसमान लौटने लगा। पक्षी उस आसमान में लौटने लगे। नाममात्र खेतों में गेंहूं की बालियों को चुराने वाले तोतों के झुंड खड्ड पार करके गांव के पेड़ों में अपने छिपने के स्थान बनाने लगे। अचानक गांव की फिजा में बदलाव आने लग पड़ा।
उधर सूबेदार जी का लड़का विदेश से कुछ दिन पहले ही गांव की सरजमीं में फिर से घुस गया था। बलैतू का बड़ा लड़का, हल्दू, छिनिया, मनंत राम के लड़के भी गांव वापिस आ चुके थे। बलैतू के घर पोते पोतरियों ने फिर से अपना घोंसला सजा लिया था। गांव की फिजा में यह बदलाव कोरोना के डर ने पैदा किया था। बूढ़ों के गांव के नाम की तख्ती सड़क के किनारे से टूट-फूट चुकी थी। छेतू सबके घर जाकर इस चमत्कार को अंचभित देख रहा था। गांव में अब वही शोर था जो कभी 10-20 वर्ष पहले हुआ करता था। गांव के साथ बहती खड्ड में पानी की धार जैसे फिर से मचल उठी थी।
बूढों के गांव की फिजाओं ने फिर नवविवाहिता की चुनरी ओढ़ ली थी। उजाड़ खेतों की माटी ने अपनी भटक चुकी इच्छा को पुचकारकर फिर से अपने पास बुला लिया था। माटी के गर्भ में फिर से फुसफुसाहट शुरू हो चुकी थी कि शायद अब उन्हें बीज मिलेंगे और इन्हीं खेतों में इन्सानी रूहें उनसे बातें करने आएंगी।
छेतू राम ने सूबेदार के घर प्रवेश किया तो बच्चों के शोर ने उसका स्वागत किया। बहू के पैरों की झांझर खनक उठी। चाय की चुस्कियों की मिठास छेतू की बूढ़ी जीभ में घुल मिल चुकी थी। ‘‘वाह भई कोरोना अवतार! तुम तो हमारे लिए वरदान बनकर आए हो। जो काम हमारी तरह हमारा पहाड़ियाँ देवता और धार के ऊपर सदियों से पत्थर बना बैठा गूँगा देवता भी न कर पाया, तुम विदेशी विषाणु ने यह काम कर दिया।
कौन तुम्हें बुरा-भला कह रहा है, भई हम तो तुम्हारे अहसानमंद हैं, बस हमारे गांव की ओर नजर न लगाना। सूबेदार हंस दिए, छेतू पता नहीं तुम क्या साचते फिरते हो, चाहे कोरोना हो या फिर करुणा का महासागर! आखिर हमारी औलादों को अपने खेत की मिट्टी और गांव का नीला आसमान याद तो आया, आखिर ये लोग मजबूर होकर अपनी छोड़ चुके जड़ों के निशान ढ़ूढने वापिस तो आए। बस मुझे इसी बात का गर्व है कि इन लोगों को यह पता है कि आखिर में अपना मुल्क, मिट्टी और गांव ही काम आते हैं।
चाहे बूढ़ों के गांव मे बसी बूढ़ी आत्माओं ने अपने आसमान में कुछ सप्ताह अपनी ज़िंदगी में नए सपनों के इंद्रधनुष को उगता देख लिया हो, पर आसमान साफ होने लगा और दूर से बादलों संग नाचता बरसाती आसमान बूढ़ों के गांव के सिर के ऊपर फैलने लगा। लाॅकडाउन खत्म हो चुका था। प्रवासी पंछी पखेरुओं ने अपने अस्थाई घोंसले त्याग दिए थे। बूढ़ों के गांव के नाम की तख्ती फिर से सड़क के किनारे लटक चुकी थी।
— डाॅ. संदीप शर्मा