क्रांतिकारी लेखक मित्रो को मेरा सलाम
साहित्यिक मासिक पत्रिका हंस, मार्च 2016 में प्रकाशित ‘आत्मकथ्य’ (अभियान की छाया / लेखक- सांत्वना निगम) के बहाने मैं भी लिखने बैठ गया…मैंने अपनी ज़िन्दगी के कई-कई वसंत-पतझड़ ‘पटना’ में बिताये हैं, लगभग 2 दशक की अवधि कतई कम नहीं होती ! पटना-प्रवास के दौरान मेरे कई साहित्यिक मित्र हुए , जिनमें अभी दो के बारे मे ही यहाँ इसलिए उल्लेख कर रहा हूँ , जिनसे जुड़े दिलों के तार दूर होते हुए भी क्षण-क्षण झंकृत करते चले जाते हैं । वे मित्र जिनकी यहाँ चर्चा नहीं हुई है, वे भी मेरे घनिष्ठ मित्र हैं। परंतु श्री मुसाफ़िर बैठा और श्री पंकज चौधरी….. दोनों से मेरी अभिन्नता कई मतभेदों के बावजूद दाँत-काटी-रोटी की है । मैं राजनीति मित्रों के विन्यस्त: कोई मनभेद नहीं रखता । पंकज चौधरी की पहली कविता-संकलन ‘उस देश की कथा’ 26 वर्ष की आयु में प्रकाशित हुई थी, जिनमें वरिष्ठ वामालोचक स्व. डॉ. खगेन्द्र ठाकुर की समीक्षा भी प्रकाशित है । भाषाई मायाजाल के परे सभी 21 कविताएं उस समय की ही नहीं , आज के समय की भी सभी भाषाओं में आ रही कविताओं में सबसे आंदोलनकारी है । ‘उस देश की कथा’ नामक कविता में भोगवादी सोच और यहां तक की विलासी में डूबी महिला को भी बख़्शा नहीं गया है । परंतु महिला को यहां तक पहुंचाने में वीर्यवान मर्दों के छीछले स्वभाव को नारीवादी कवयित्री स्वर्णलता विश्वफूल ने ‘ये उदास चेहरे’ में ऐसा आघात पहुँचाई है कि पंकज चौधरी भी बाद में वाह-वाह कर उठे थे ! मित्र पंकज की कविता में कवि इ. केदारनाथ की कविता ‘वो देश को दीमक की तरह चाट रहे हैं’ , बरबस याद आ जाते हैं । बकौल, पंकज- “उस देश की कुर्सिनसीनों का कहना है / कि जब वो अपने अशुभ-अनार्य-योग्य चूतड़ को/ गौरव-गरिमा उच्चता और पाकीज़गी की प्रतिमूर्ति/ कुर्सी पर टिकाने का जतन करने लगता है/ तो स्वर्ग में/ उर्वशियों-मेनकाओं-रंभाओं के साथ/ प्रमुदित मैथुनरत इंद्र / के सिंहासन की चूलें हिलने लगती हैं ।” पंकज चौधरी संघर्षरत पत्रकार हैं, कई राज्यों के पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं । सम्प्रति, वे दिल्ली रह रहे हैं और ‘युद्धरत आम-आदमी’ के संपादक रहे हैं, ‘फॉरवर्ड प्रेस’ में रहे हैं, तो कैलाश सत्यार्थी फाउंडेशन में भी रहे हैं !
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डॉ. मुसाफ़िर बैठा मेरे वरेण्य मित्र हैं, अग्रज भी । कई विषयों में एम.ए. हैं, उर्दू में भी । मेरी दृष्टि में हिंदी भाषाई, शैलीगत- नवचेष्टा, सुलेख और व्याकरणीय लिहाज़ से उस जैसा अभी सम्पूर्ण भारत में हिंदी के ज्ञाता नहीं हैं , हर मुलाक़ात पर उस अद्भुत जीव से मैं कुछ न कुछ सीखता रहा हूँ । ‘हंस’ के महान संपादक मान्यवर राजेन्द्र यादव से मेरी कई मुलाकातें हुई हैं, हर मुलाक़ात में मैं श्री मुसाफ़िर जी के बारे में अवश्य चर्चा किया है । प्रत्येक भेंट में उनका कहना रहा— वे कैसे मुसाफ़िर हैं, जो अभीतक बैठे हैं ! सीधे अर्थ में यह वाक्यांश ‘नाम’ से जुड़ा लगता है, परंतु उनका यह कहना था- ऐसे व्यक्ति / लेखक को अपने लेखन के बूते पूरे भारत में नवविचारों को लेकर आग लगाने चाहिए । सचमुच में आज उनके फेसबुक पर लगी आग देखी जा सकती है । उनके कई आलेख दाँतों तले अँगुली चबाने को विवश करता है । उनकी कविता-संग्रह भी प्रकाशित हैं । परंतु यहां चर्चा उनके शोध-दस्तावेज़ ”हिंदी दलित आत्मकथाओं में अभिव्यक्त क्रूर यथार्थ का संसार” की । जो श्री मुसाफ़िर बैठा के शोध-प्रबंध है और 2008 ई0 में पटना यूनिवर्सिटी से इसपर उन्हें Ph. D. मिला । ज्ञात हो, हिंदी दलित आत्मकथा में Ph. D. प्राप्त करनेवाले पूरे भारत / हिंदी के पहले शोधार्थी हैं । मैं गौरवान्वित महसूस करता हूँ कि इस शोध-प्रबंध में मेरी भी चर्चा इसरूप में है—“सर्वथा अयोग्य सवर्ण सहकर्मी साम-दाम-दंड-भेद की जुगत भिड़ाकर नौकरी हथियाये , भी हम दलितों की प्रूव्ड प्रतिभा को स्वीकारना नहीं चाहता । अनधिकार नौकरी पाकर प्रतिभाशून्य सवर्ण भी अपने दर्प व जात्याभिमान के शिखर पर होता है । इस बात की गवाही बहुमुखी प्रतिभा के धनी एवम् उदीयमान आलोचक-विचारक सदानंद पाल के ‘हंस’ के ‘सत्ता , विमर्श और दलित’ विशेषांक में छपे सारगर्भित स्वानुभूतिपरक आलेख ‘ मेहतरानी बहन और चमारिन प्रेमिका’ के बहुविध प्रसंगों से होती है । इस लेख में सदानंद ने हमारी आपसदारी की एक बात लिखी है,जो मेरी वर्तमान नौकरी का ही भोगा हुआ सच है — ”मेरे एक वरिष्ठ मित्र श्री मुसाफ़िर बैठा ने अपने सहकर्मी मिश्र जी को कहा कि आज एक महापुरुष की जयंती है, तो सुनकर मिश्रपात हुआ- ‘क्या सुबह-सुबह आप अम्बेडकरवा के बारे में कहने लगे ?”
मुसाफ़िर जी यथार्थपरक रचना करने के जादूगर हैं । वे पारंपरिक-अवलम्बन को चेतनावृत्त के तत्वश: पहले प्रूव करते हैं, तब प्रैक्टिकल कर लिखते है । वे सत्यश: नृविज्ञानी है । श्री मुसाफ़िर जी ने मुझ में क्या देखा कि उन्होंने मेरे नाम का रमन मैगसायसाय अवार्ड में नामांकनार्थ अनुशंसा भी किया , जिनका जवाब RMA Foundation, MANILA से 5 मई 2009 के सम्प्रति आया भी। जहाँ मित्रता होती है, स्वाभाविक है, वहाँ मतभेद भी होंगे ! किंतु मनभेद तो नक्को बाबा ! दोनों मित्रो के स्वर्णिम भविष्य की कामना करता हूँ!