धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

अरुणाचल प्रदेश के पर्व – त्योहार

अरुणाचल प्रदेश अपने नैसर्गिक सौंदर्य, सदाबहार घाटियों, वनाच्छा्दित पर्वतों, बहुरंगी संस्कृरति, समृद्ध विरासत, बहुजातीय समाज, भाषायी वैविध्यन एवं नयनाभिराम वन्यत-प्राणियों के कारण देश में विशिष्टै स्थाीन रखता है । अनेक नदियों एवं झरनों से अभिसिंचित अरुणाचल की सुरम्यं भूमि में भगवान भाष्कमर सर्वप्रथम अपनी रश्मिो विकीर्ण करते हैं, इसलिए इसे उगते हुए सूर्य की भूमि का अभिधान दिया गया है । इसके पश्चिम में भूटान और तिब्बत, उत्तर तथा उत्तर – पूर्व में चीन, पूर्व एवं दक्षिण – पूर्व में म्यांमार और दक्षिण में असम की ब्रह्मपुत्र घाटी स्थित है I पहले यह उत्तर – पूर्व सीमांत एजेंसी अर्थात नेफा के नाम से जाना जाता था I 21 जनवरी 1972 को इसे केन्द्रशासित प्रदेश बनाया गया I इसके बाद 20 फ़रवरी 1987 को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया I इसका क्षेत्रफल 83,743 वर्गकिलोमीटर है जो देश के क्षेत्रफल का 2.54 प्रतिशत एवं पूर्वोत्तर का ( सिक्किम को छोड़कर ) 32.81 प्रतिशत है I 2011 की जनगणना के अनुसार अरुणाचल की कुल जनसंख्या 13,82,611 है जिनमें पुरुष 7,20,232 और महिला 6,62,379 है I जनसंख्या का घनत्व 17 व्यक्ति प्रति वर्गकिलोमीटर है I यहाँ लिंगानुपात प्रति 1000 पुरुषों पर 920 है तथा साक्षरता दर 66.95 प्रतिशत है I प्रदेश में लगभग 25 प्रमुख जनजातियाँ निवास करती हैं I आदी, न्यिशी, आपातानी, हिल मीरी, तागिन, सुलुंग, मोम्पा, खाम्ती, शेरदुक्पेन, सिंहफ़ो, मेम्बा, खम्बा, नोक्ते, वांचो, तांगसा, मिश्मी, बुगुन (खोवा), आका, मिजी इत्यादि अरुणाचल प्रदेश के प्रमुख आदिवासी समुदाय हैं I इन सभी जनजातियों की अलग-अलग भाषाएं हैं तथा अनेक उपजातियां हैं, लेकिन सभी लोग संपर्क भाषा के रूप में हिंदी का प्रयोग करते है I

द्री त्योहार (Dree Fesrival) – द्री त्योहार अरुणाचल प्रदेश के आपातानी समुदाय का प्रमुख त्योहार है। इस त्योहार का कृषि के साथ संबंध है। यह आपातानी समुदाय का त्योहार है, फिर भी इसमें अन्य जनजातियों के लोग भी शामिल होते हैं I यह त्योहार प्रत्येक वर्ष 5 जुलाई को तीन दिनों तक मनाया जाता है। इस त्योहार का आयोजन जिरो घाटी में किया जाता है I इस त्योहार में समाज को सुख और समृद्धि देनेवाली धरती तथा फसलों की देवी की पूजा की जाती है। इस त्योहार में चार देवताओं की पूजा की जाती है जिनके नाम हैं – तामु, मेतीई, हरनियांग और दान्यी I आकाश देवता की भी पूजा की जाती है और उन्हें मुर्गी, कुत्ता, सूअर, मिथुन, गाय इत्यादि पशुओं की बलि दी जाती है। ऐसी मान्यता है कि तामु कीड़े-मकोड़ों से फसलों की रक्षा करता है, मेतीई अकाल और महामारी से फसलों की सुरक्षा करता है, आकाश देवता प्राकृतिक विपदा से मानव की रक्षा करता है और खेती के लिए जल वृष्टि करता है। पर्व के पंद्रह-बीस दिन पहले से ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है। बुजुर्ग ग्रामीणों की एक समिति बनाई जाती है। यह समिति घर-घर जाकर प्रत्येक परिवार से चावल, पैसा और अन्य पूजा सामग्री एकत्रित करती है। त्योहार के लिए पर्याप्त मात्रा में मदिरा (ओह) तैयार की जाती है। त्योहार के एक दिन पूर्व पुजारी इष्ट देव की प्रार्थना करता है और समुदाय के सभी लोगों के लिए मंगलकामना करता है। पुजारी खेतों में जाकर कुछ संस्कार संपन्न करता है। इसके बाद वह द्री त्योहार आरंभ होने की विधिवत घोषणा करता है। दोन्यी, तानी इत्यादि देवताओं के बांस के प्रतीक बनाए जाते हैं और वेदी के निकट उन्हें प्रतिष्ठित किया जाता है। सभी गांववासी पूजास्थल के निकट एकत्रित होते हैं, लड़कियां रंग-बिरंगे वस्त्र पहनकर नाचती-गाती हैं तथा अन्य पुजारियों के साथ मुख्य पुजारी इष्ट देव की प्रार्थना करता है। पशुओं की बलि दी जाती है और सभी लोग सामूहिक भोज में शामिल होते हैं । इस त्योहार में पुजारी के नेतृत्व में नवयुवकों का जुलूस गाँव-गाँव भ्रमण करता है। ये लोग जिस गाँव में जाते हैं वहाँ मदिरा से उनका स्वागत किया जाता है। इस पर्व का उद्देश्य भूमि की उर्वरा शक्ति में वृद्धि करना है। धनी व्यक्ति निजी स्तर पर भी इस त्योहार का आयोजन करते हैं। इससे उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा में वृद्धि होती है।

नेचिदो त्योहार (Nechido Fesrival) – नेचिदो अरुणाचल प्रदेश की आका जनजाति का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है। यह प्रत्येक वर्ष नवंबर महीने में सामुदायिक स्तर पर आयोजित किया जाता है। यह त्योहार पाँच वर्ष के अंतराल पर दिसंबर (नुचोकु) में मनाया जाता है। जब यह दिसंबर में आयोजित किया जाता है तो समस्त ग्रामवासियों की सुख-समृद्धि के लिए वनदेव (नेचिगिरी) के नाम पर अन्य छोटे जानवरों के साथ-साथ मिथुन और सांड की बलि दी जाती है। त्योहार के प्रथम दिन को ‘नेचिसेव’ कहा जाता है। इस दिन पुजारी और उसके पाँच सहायक पंद्रह बार गाँव के चारों ओर घूमते हैं और दुष्ट शक्तियों को गाँव से बाहर जाने का आह्वान करते हैं। इस दिन देवी – देवताओं को चावल से बनी मदिरा, चावल, शकरकंद आदि अर्पित किए जाते हैं तथा जानवरों की बलि दी जाती है। इस त्योहार के अवसर पर जिन देवी-देवताओं की पूजा की जाती है इनके नाम हैं – ‘नेथपसिरो’, ‘नेचिकृकु’, ‘तमोमुथि’, ‘स्पसिनि’, ‘हुसिगा-मिसिगा’, ‘दमुखि-मुदु’, ‘हुफु-खरु’ आदि। ‘नेचिदो’ त्योहार के अवसर पर सभी ग्रामवासी भोज में सम्मिलित होते हैं, नाचते-गाते हैं और अपने गाँव-समाज के कल्याण की कामना से विभिन्न दैवी शक्तियों की पूजा – अर्चना करते हैं।

चलो त्योहार (Chalo Festival) – नोक्ते अरुणाचल प्रदेश की एक महत्वपूर्ण जनजाति है I इनका निवास क्षेत्र अरुणाचल प्रदेश का तिरप जिला है। नोक्ते समुदाय द्वारा अनेक पर्व-त्योहार मनाए जाते हैं जिनमें ‘चलो’ उनका सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह समान्यतः अक्तूबर – नवंबर महीने में धान की कटाई समाप्त हो जाने के बाद मनाया जाता है। यह कृषि से संबंधित त्योहार है। धन-धान्य और अच्छी फसल के लिए ‘रंग’ की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से इस त्योहार आयोजन किया जाता है । यह त्योहार तीन दिनों तक मनाया जाता है। पहले दिन को ‘फमलामजा’ अथवा तैयारी का दिन कहते हैं। इस दिन भैंस, सूअर, गिलहरी आदि की बलि दी जाती है। त्योहार के लिए सब्जियां, मदिरा, चावल, मसाले, जलावन इत्यादि की व्यवस्था की जाती है I त्योहार में आने के लिए गाँव के बाहर के अतिथियों को आमंत्रित किया जाता है I दूसरे दिन को ‘चमकातजा’ कहते हैं। सभी लोग नए-नए वस्त्र, गहने आदि धारण करते हैं तथा महिलाओं को छोडकर गाँव के बुजुर्ग और युवा सभी ‘चाम’ में एकत्रित होते हैं I महिलाओं का ‘चाम’ में जाना वर्जित है I ‘चाम’ बांस का बना एक ‘चांग’ होता है जिसमें धर्मिक अनुष्ठान आयोजित किए जाते हैं I भोज के लिए ‘चाम’ में चावल से बनी मदिरा, भात, मांस आदि भोज्य पदार्थ एकत्रित किए जाते हैं I इस दिन चीफ अथवा पुजारी द्वारा बांस के बने ‘चाम’ में कुछ धार्मिक अनुष्ठान किए जाते हैं। इस अनुष्ठान में ‘खाम’ (चावल निर्मित मदिरा) का प्रमुखता के साथ सेवन किया जाता है । शाम में चीफ के घर में पूरी रात लोकनृत्य का प्रदर्शन किया जाता है I तीसरे दिन को ‘थनलंग जा’ कहते हैं। इस दिन गाँव के चीफ (लोवांग) बुजुर्गों के साथ ’पंग’ के परिसर में बैठते हैं और झूम खेती के लिए खेतों का चयन करते हैं I इस समुदाय के लोग घर – घर जाकर नृत्य करते हैं। चलो नोकते समुदाय का कृषि – सह – नव वर्ष त्योहार है I वे लोग बेसब्री से इस त्योहार की प्रतीक्षा करते हैं I इस त्योहार के समय पूरा नोक्ते समुदाय मनोरंजन के मूड में रहता है, वे नाचते हैं, गाते हैं, गप्प करते हैं I प्रत्येक नोक्ते गाँव में एक युवागृह होता है जिसे ‘पंग’ कहा जाता है I पंग में लकड़ी का एक बड़ा तना (थाम) रखा रहता है I त्योहार के समय थाम को जोर – जोर से पीटा जाता है I पुराने दिनों में चलो त्योहार पारंपरिक तरीके से मनाए जाते थे जिनमें मदिरा (खाम) पीना और नृत्य करना प्रमुख होता था I पहले यह त्योहार एक गाँव विशेष तक ही सीमित होता था लेकिन अब इस त्योहार का आयोजन किसी केन्द्रीय स्थल पर होता है जहाँ सभी लोग भाग ले सकते हैं I पहली बार वर्ष 1970 में खोंसा में केन्द्रीय स्थल पर आधुनिक तरीके से ‘चलो लोकु’ त्योहार का आयोजन किया गया था I पहले इसके आयोजन की कोई निश्चित तिथि नहीं थी लेकिन बाद में इस त्योहार के लिए 25 नवंबर का दिन निश्चित कर दिया गया I इस दिन स्थानीय स्तर पर छुट्टी घोषित की जाती है I नोक्ते समुदाय के लोग एक सर्वोच्च शक्ति के अस्तित्व में निष्ठा रखते हैं जिसे ‘जौबन’, ‘जोंगबन’ अथवा ‘तेसोंग’ कहा जाता है। ये शक्तियाँ कल्याणकारी और विनाशकारी दोनों प्रकार की हैं। ये दुख, दरिद्रता और रोग – शोक का कारण भी बनती हैं तथा सुख – समृद्धि भी लाती हैं। असम के वैष्णव आंदोलन के समय नोक्ते लोगों पर हिन्दू धर्म का गहरा प्रभाव पड़ा। धार्मिक दृष्टि से नोक्ते समाज वैष्णव धर्मावलंबी है तथा हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा करता है I

न्योकुम त्योहार (Nyokum Festival) – निशिंग अरुणाचल प्रदेश की दूसरी सर्वाधिक जनसंख्या वाली जनजाति है। अरुणाचल के लोअर सुबनसीरी, अपर सुबनसीरी, पापुमपारे और ईस्ट कामेंग जिलों में इनका निवास है। ईस्ट कामेंग जिले के निशि को बेंगनी, लोअर सुबनसीरी जिले के निशि को निशांग तथा पापुमपारे जिले के निशि को निश पुकारा जाता है। पहले इनको ‘दफ़ला’ कहा जाता था परंतु अब इनको न्यिशी के नाम से संबोधित किया जाता है। नि + शिंग के योग से बना ‘निशिंग’ का शाब्दिक अर्थ स्थानीय भाषा में मनुष्य है। ये लोग आबो तानी के वंशज माने जाते हैं। संस्कृति, धर्म और भाषा की दृष्टि से अरुणाचल की आदी एवं हिल मीरी जनजातियों से इनका सामीप्य है। निशि समाज का एक प्रमुख त्योहार न्योकुम युल्लो है। यह एक कृषि पर्व है। इसका आयोजन फरवरी माह में किया जाता है। इस पर्व का संबंध निशि समुदाय के आदि पुरुष आबो तानी से है। आबो तानी इस समुदाय के सर्वाधिक पूज्य मिथक पुरुष हैं। ऐसा माना जाता है कि आबो तानी ने लोक कल्याण के लिए असीम दुख सहे थे। उन्होने परोपकार में ही अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिया था। वे दिव्य शक्तियों से मंडित ऐसे महापुरुष थे जिनके लिए कोई कार्य असंभव नहीं था। उन्होने एक बार भीषण बाढ़ मे लोगों की प्राण रक्षा की थी। न्योकुम से जुड़ी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार एक बार भगवान दोजिंग और उनके भाई आबो तानी से बहुत नाराज हो गए। क्रोधित होकर उन लोगों ने तानी की दो पुत्रियों – कुपा और कोयंग का अपहरण कर लिया। तानी ने अपनी दोनों पुत्रियों को अपहर्ताओं के चंगुल से मुक्त कराने के लिए दोजिंग तथा उनके भाई की प्रार्थना की तथा उन्हें बकरा, मुर्गी आदि जानवरों की बलि दी। पूजा से वे बहुत प्रसन्न हुए और उनकी दोनों बेटियों को मुक्त कर दिया। उन्होने तानी को आश्वस्त किया कि यदि इसी तरह प्रति वर्ष उनकी पूजा की जाती रही तो तानी की संततियों को कोई कष्ट नहीं होगा, खेतों में अच्छी फसल होगी तथा घरेलू पशु भी निरोग रहेंगे। उसी समय से प्रति वर्ष इस पर्व को पारंपरिक ढंग से मनाया जाता है। ‘न्योकुम’ दो शब्दों के योग से बना है – नयो+कुम (उम) । ‘न्यो’ का अर्थ है ‘पृथ्वी के सभी देवी-देवता’ और ‘कुम’ अथवा ‘उम’ का अर्थ है ‘माँ पृथ्वी के आँचल में सिमटे सभी मानव।‘ इस प्रकार न्योकुम का बहुत व्यापक और उदात्त अर्थ है। इससे पृथ्वी के सभी देवी-देवताओं का बोध होता है। बीज बोने के समय इस त्योहार का आयोजन किया जाता है। इस त्योहार का कृषि के साथ गहरा संबंध है। इस त्योहार में न्योकुम देवी का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उनकी प्रार्थना की जाती है I इस अवसर पर प्रार्थना की जाती है कि आगामी वर्ष में अनाज का अधिक उत्पादन हो, अकाल का प्रकोप नहीं हो, बाढ़ से फसलों का विनाश नहीं हो और कीड़े एवं जानवर फसलों वपौधों को नष्ट नहीं करें। लोग वर्ष भर इस त्योहार का बेसब्री से इंतजार करते हैं। इस पर्व के पहले लोग अपने घरों और धान्यागारों का पुनर्निर्माण करते हैं और उन्हें सजाते हैं। पर्व के लिए चावल, मांस और अपो (मदिरा) तैयार किया जाता है I इन व्यंजनों से अतिथियों का स्वागत किया जाता है। घर धन-धान्य से परिपूर्ण रहे इसके लिए देवी से प्रार्थना की जाती है। यह त्योहार दो से चार दिनों तक चलता है। पूजा के लिए एक प्रधान वेदी और उसके आस -पास कई अन्य वेदियाँ बनाई जाती हैं। इन वेदियों को गाँव के मध्य में अथवा किसी मैदान में विधिपूर्वक स्थापित किया जाता है। ये वेदियाँ विभिन्न देवी-देवताओं के प्रतीक होती हैं। पुजारी अपने सहायक पुजारियों के साथ देवता की स्तुति कर पूजा का शुभारंभ करता है। सभी ग्रामवासी अपने पारंपरिक परिधानों में पूजास्थल पर आते हैं। सभी स्त्री – पुरुष देवी को प्रसन्न करने के लिए प्रार्थना करते हैं। सुख-समृद्धि, फसलों की सुरक्षा तथा पशुओं और मनुष्यों के स्वास्थ्य के लिए सामूहिक रूप से प्रार्थना की जाती है। आसपास का वातावरण नृत्य और गीतों से झूम उठता है। ‘अपो’ पीने-पिलाने का दौर शुरू होता है। त्योहार के अंतिम चरण में आसपास के गाँवों के लोग अपने-अपने गाँवों में पूजा करने के उपरांत एकत्रित होकर जुलूस निकालते हैं। मुख्य बलिपशु मुख्य वेदी पर बंधा रहता है। सभी लोग वेदियों और बलिपशुओं पर चावल का आटा छींटते हैं। अंत में पुजारी का संकेत पाकर पशुओं की बलि देने का कार्य आरंभ होता है। बलि कर्म इस पर्व का मुख्य आकर्षण होता है। पहले मुख्य पशु की बलि दी जाती है, उसके बाद अन्य पशुओं की बलि दी जाती है। इसका मांस सभी लोगों में वितरित किया जाता है। न्यीब (पुजारी) के मंत्रोच्चारण के साथ त्योहार का समापन होता है।

आरान पर्व (Aran Festival)– अरुणाचल प्रदेश में आदी जनजाति के लोग धूमधाम से आरान पर्व मनाते हैं I आरान पर्व का आयोजन प्रत्येक वर्ष मार्च-अप्रैल महीने में होता है। यह एक कृषि पर्व है। यह नववर्ष के स्वागत और पुराने वर्ष की विदाई में मनाया जानेवाला त्योहार है। त्योहार के आरंभ होने के पूर्व गाँव के पुरुष सदस्य शिकार और मछली मारने के लिए जाते हैं। महिलायें चावल और अपोंग तैयार करती हैं। पुरुषों के शिकार से लौटने के उपरांत ‘दोगीन-यूमे’ आरंभ होता है। संध्या बेला में प्रत्येक परिवार में विभिन्न देवी-देवताओं की आराधना की जाती है तथा उन्हें अपोंग (मदिरा) और दोपाक (आचार) चढ़ाया जाता है। दूसरे दिन सुबह में मिथुन, सूअर इत्यादि जानवरों की बलि दी जाती है तथा मांस और अपोंग तैयार किया जाता है। सभी एक-दूसरे को खाने के लिए आमंत्रित करते हैं और एक-दूसरे के घर जाकर भोजन करते हैं। सभी मिल जुलकर नाचते -गाते और खुशी मनाते हैं। त्योहार के अंतिम दिन महिलाएं पशुओं के देवता को खुश करने के लिए अपोंग, अंडे, भूनी गिलहरी इत्यादि वस्तुओं की भेंट चढ़ाती हैं और पालतू जानवरों को निरोग रखने के लिए उनसे प्रार्थना करती हैं। इस प्रकार आरान पर्व का समापन होता है।

ओजियेले त्योहार (Ojiyele Festival) – अरुणाचल प्रदेश के वांचो समुदाय के लोग विभिन्न प्रकार के कृषि संबंधी सामाजिक और धार्मिक उत्सव मनाते हैं। विभिन्न गांवों में उत्सव के नामों और उत्सव आयोजित करने के रीति- रिवाजों में भिन्नता है। ‘ओजियेले’ वांचो समुदाय का सबसे प्रमुख त्योहार है। वांचो समुदाय के सामाजिक – सांस्कृतिक जीवन में इस त्योहार का महत्वपूर्ण स्थान है I इस त्योहार से जुड़े अनुष्ठानों में वांचो जनजाति के सामाजिक मूल्य, व्यवहार, प्रवृत्ति और परंपरा प्रतिबिंबित होती है I धान की खेती करने के बाद प्रतिवर्ष मार्च-अप्रैल महीने में छह से बारह दिनों तक वांचो लोग उत्साहपूर्वक यह त्योहार मनाते हैं। गाँव के चीफ द्वारा त्योहार की तिथि निर्धारित की जाती है I जब त्योहार की तिथि निश्चित हो जाती है तो “न्गवापा” द्वारा सार्वजनिक रूप से इसकी घोषणा की जाती है I गाँव के केन्द्रीय स्थल पर बने “टिंगलेटनोई” के मंच से तिथि की घोषणा की जाती है ताकि गाँव के सभी लोग इस सूचना से अवगत हो सकें I “टिंगलेटनोई” गाँव के केन्द्रीय स्थल पर निर्मित घोषणा केंद्र को कहते हैं I त्योहार की तिथि घोषित हो जाने के बाद इसकी तैयारी शुरू होती है I चावल से मदिरा बनाई जाती है तथा बलि देने के लिए मुर्गी, गाय, भैंस आदि जानवरों को एकत्रित किया जाता है I यह त्योहार पांच से दस दिनों तक चलता है I त्योहार के प्रथम दिन को “वंडक” कहा जाता है I इस दिन गाँव के नवयुवक जंगल से बाँस एकत्रित करते हैं I इस बांस से मचान बनाया जाता है I मचान में गाँव के चीफ और अन्य बुजुर्ग प्रार्थना करते हैं I इस दिन सूअर, भैंस, मिथुन आदि जानवरों की बलि दी जाती है I त्योहार के दूसरे दिन को “थोटेन” कहा जाता है I इस दिन गांववासी अपने – अपने घरों में सूअर, भैंस, मिथुन आदि जानवरों की बलि देते हैं तथा मदिरा और मांस से अतिथियों का स्वागत करते हैं I ग्रामीण नवयुक पशुबलि में सहायता करने के लिए एक – दूसरे के घर जाते हैं I तीसरे दिन को “रंगोसिया” कहा जाता है I इस दिन गाँव के नवयुवक प्रत्येक युवागृह (मोरंग) के सामने मचान का निर्माण करते हैं I गाँव के बुजुर्ग और बच्चे धान के खेतों में जाकर प्रार्थना करते हैं I वे बांस से बने पात्र में देवी – देवताओं को मदिरा अर्पित करते हैं तथा उनसे अच्छी फसल के लिए कामना करते हैं I चौथे दिन को “बोनु” कहा जाता है I इस दिन गाँववासी बलिपशु के मांस का एक टुकड़ा लेकर गाँव के चीफ के मकान के सामने निश्चित स्थान पर रखते हैं I उस दिन ग्रामवासी चीफ के घर में भोजन करते हैं I इस दिन चीफ के शयनागार में नृत्य प्रस्तुत किया जाता है I पांचवें दिन को “बोसा” कहा जाता है I इस दिन युवक – युवतियां पहले अपने युवागृह (मोरंग) के सामने नृत्य करते हैं और बाद में वे गाँव में बने सार्वजनिक नृत्य स्थल पर जाकर नृत्य करते हैं I इस नृत्य में गाँव के सभी लोग शामिल होते हैं तथा एक – दूसरे के घर जाते हैं जहां मदिरा और खाद्य पदार्थों से उनका स्वागत किया जाता है I इसके साथ ही इस त्योहार का समापन हो जाता है I

सि – दोन्यी त्योहार (The Si – Donyi Festival) – अरुणाचल के अपर सुबनसिरी और वेस्ट सियांग जिले तागिन जनजाति के निवास क्षेत्र हैं। ‘सि – दोन्यी’ तागिन समाज का प्रमुख पर्व है। इसमें पृथ्वी और आकाश की पूजा की जाती है। ‘सि – दोन्यी’ का अर्थ पृथ्वी और सूर्य (सि-पृथ्वी, दोन्यी-सूर्य) है I फसल काटने के बाद प्रति वर्ष यह पर्व सामुदायिक आधार पर मनाया जाता है। फसलों को नष्ट होने से बचाने, रोग और असामयिक मृत्यु से सुरक्षा और समृद्ध जीवन की कामना से यह पर्व मनाया जाता है I इस अवसर पर मिथुन की बलि दी जाती है। सभी लोग एकत्रित होकर अपने इष्ट देव की प्रार्थना करते हैं। समाज का प्रत्येक सदस्य – आबालवृद्धवनिता इसमें भाग लेता है। सभी लोग यथाशक्ति इस त्योहार में योगदान करते हैं। कुछ लोग शारीरिक श्रम के द्वारा योगदान करते हैं तो कुछ लोग पैसे, मिथुन, अपोंग, चावल इत्यादि वस्तुएँ देते हैं। इस अवसर पर पारंपरिक नृत्य और गीत प्रस्तुत किए जाते हैं ।

बूरी-बूत त्योहार (Boori – Boot Festival) – बूरी-बूत अरुणाचल प्रदेश के हिलमिरी समुदाय का प्रमुख पर्व है। सदियों से यह पर्व इस समुदाय द्वारा पारंपरिक रीति से मनाया जाता है। इसका आयोजन फरवरी (लोके पोलो) माह में किया जाता है I यह तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसका संबंध आदि पुरुष ‘आबो तानी’ से है। हिलमिरी समुदाय का विश्वास है कि आबो तानी का जन्म तो एक मनुष्य के रूप में हुआ था लेकिन वे अलौकिक शक्तियों से संपन्न थे। इस पर्व की तैयारी कुछ दिन पहले से ही आरंभ हो जाती है। समाज के सभी लोग इस त्योहार में योगदान करते हैं। पुजारी द्वारा पूजा स्थल का चुनाव किया जाता है। पर्व के प्रथम दिन पुजारी देवी-देवताओं का आवाहन करता है और पूजा को स्वीकार करने के लिए देवताओं से प्रार्थना करता है। आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए देवी-देवताओं की प्रार्थना की जाती है और सुख-शांति की कामना से उन्हें चढ़ावा चढ़ाया जाता है। त्योहार के दूसरे दिन मिथुन की बलि दी जाती है। पुजारी के नेतृत्व में गाँव के स्त्री-पुरुष और बच्चे जुलूस के रूप में बलिवेदी तक जाते हैं और ‘बूरी-आबो’ की प्रार्थना करते हैं। लड़कियां अपने सिर पर चावल का आटा लिए रहती हैं। युवा दल नृत्य-गीतों के द्वारा अपने इष्ट देव को प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है। मिथुन की बलि के समय आबालवृद्धवनिता एक-दूसरे पर चावल का आटा छींटते हैं। अगले दिन सामूहिक भोज आयोजित किया जाता है जिसमें गाँव के सभी लोग शामिल होते हैं। यह त्योहार हिल मिरी समाज को नई ऊर्जा और नवीन उत्साह से भर देता है।

रेह त्योहार (Reh Festival) – अरुणाचल प्रदेश के दिबांग वैली और लोहित जिले मिश्मी जनजाति के निवास क्षेत्र हैं। यह जनजाति तीन उपवर्गों में विभक्त है – ईदु मिश्मी, दिगारु मिश्मी और मिजु अथवा कमान। ईदु लोग दिबांग वैली जिले में रहते हैं जबकि अन्य दोनों जातियों का निवास स्थान लोहित जिला है। ऐसी मान्यता है कि राजा भीष्मक की पुत्री और भगवान श्रीक़ृष्ण की पत्नी रुक्मिणी ईदु मिश्मी जनजाति की थी। दिबांग वैली जिले में भीष्मकनगर अवस्थित है जिसके आसपास ईदु मिश्मी जनजाति का निवास है। मिश्मी समुदाय की मान्यता है कि इस संसार का सृजन करनेवाले असीम शक्ति-संपन्न सृष्टिकर्ता का नाम ‘मताई’ है। यह सर्वशक्तिमान और सभी देवी-देवताओं में श्रेष्ठ है। ‘मताई’ मानव के कल्याण और सुख का आधार है। वह हर पल मानव की सुख-समृद्धि के लिए सचेत रहता है। इस समुदाय में ‘ब्रु’ को भी सर्वव्यापी और शक्तिशाली देवता माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि ये बहुत क्रोधी देवता हैं तथा यदि इनकी उपेक्षा की जाए तो ये मनुष्य को क्षति पहुँचाते हैं। ‘कुता’ को जंगल एवं ‘कुपा’ को वनस्पति का देवता माना जाता है। ईदु मिश्मी समुदाय में ‘अली’ को धन का देवता माना जाता है। ‘अर्रुसुदु’ आंधी-तूफान को नियंत्रित करता है, ‘असा’ एक दुष्ट शक्ति है जो रोगों का कारक है, ‘बेइका’ जल में रहने वाली सर्पाकार दैवीय शक्ति है। इन देवी-देवताओं के अतिरिक्त भी मिश्मी समुदाय असंख्य देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धावनत है और इनकी पूजा-अर्चना करता है। ‘रेह’ ईदु मिश्मी समाज का महत्वपूर्ण त्योहार है। इसका आयोजन व्यक्तिगत स्तर पर किया जाता है I इसमें ‘नान्यी इन्यीताया’ अर्थात माता सूर्य की पूजा की जाती है। यह त्योहार बहुत खर्चीला है क्योंकि त्योहार में ‘नान्यी इन्यीताया’ को बलि देने के लिए पर्याप्त संख्या में मिथुन, भैंस और अन्य पशुओं की आवश्यकता होती है I इसके अतिरिक्त इस त्योहार में भारी मात्रा में मुर्गी, सूअर, खाद्यान्न, मदिरा की आवश्यकता होती है I इस समुदाय के लोगों का मानना है कि वे ‘नान्यी इन्यीताया’ अर्थात माता सूर्य की संतान हैं और उनकी पूजा किए बिना उनका आशीर्वाद नहीं प्राप्त कर सकते हैं I बहुत खर्चीला होने के कारण अब रेह त्योहार को सामुदायिक रूप दे दिया गया है I यह त्योहार प्रत्येक वर्ष फरवरी के प्रथम सप्ताह में उत्साह और समर्पण के साथ आयोजित किया जाता है। गाँव के बाहर बाँस, पेड़ और फूल – पत्तों से गेट बनाए जाते हैं ताकि दुष्ट शक्तियां गाँव में प्रवेश नहीं करें I ईदु मिश्मी जनजाति के लोगों ने रेह त्योहार के लिए सर्वसम्मति से एक ध्वज को स्वीकार कर लिया है जिसमें हरे रंग के कपड़े पर सूर्य और मिथुन की खोपड़ी अंकित है I हरा रंग पृथ्वी, पेड़- पौधे, पत्थर, पर्वत, जीवन, हरीतिमा आदि का प्रतीक है लेकिन सूर्य के बिना इन सबका कोई अस्तित्व नहीं है I इसलिए ध्वज में सूर्य का प्रतीक है I रेह में ‘नान्यी इन्यीताया’ अर्थात माता सूर्य की पूजा की जाती है और उन्हें संतुष्ट व प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है I उन्हें प्रसंन्न करने के लिए मिथुन की बलि दी जाती है I ईदु मिश्मी समाज में मिथुन का बहुत महत्व है I इसलिए इस त्योहार के ध्वज में मिथुन की खोपड़ी अंकित है I

चिनडंग त्योहार (Chindang Festival) – मीजी जनजाति का निवास क्षेत्र अरुणाचल के पश्चिमी कामेंग जिले का नाफ्रा अंचल है। धर्म की दृष्टि से यह समाज जड़ात्मवादी या प्रकृतिपूजक है। ये लोग पर्वत, वन, सूर्य, चंद्रमा आदि के साथ – साथ अन्य दैवी शक्तियों में विश्वास करते हैं। ‘चिनडंग’ त्योहार इनका सबसे प्रमुख त्योहार है। सुख – समृद्धि और आरोग्य की कामना से धूमधाम के साथ इस त्योहार का आयोजन किया जाता है। ‘चिनडंग’ शब्द ‘चिन’ और ‘डंग’ के संयोग से बना है I ‘चिन’ का अर्थ पूजा और ‘डंग’ का अर्थ अर्पित करना अथवा बलि देना है । इस त्योहार में सर्वशक्तिमान आध्यात्मिक प्रतीक ‘जंग लंग नाई’ तथा अन्य देवताओं जैसे सूर्य, चंद्रमा, पर्वत, नदी, वन आदि की पूजा की जाती है I देवी – देवताओं को विभिन्न वस्तुएँ अर्पित की जाती है, उनको जानवरों की बलि दी जाती है तथा मंत्रों-गीतों से उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है। यह त्योहार एक प्रकार से देवी – देवताओं की ओर से आशीर्वाद है I भरपूर अन्न का उत्पादन, फसलों की सुरक्षा और प्रगति के उद्देश्य से यह त्योहार आयोजित किया जाता है I त्योहार में दुष्ट शक्तियों का शमन, महामारी की रोकथाम और आरोग्य के लिए देवी – देवताओं की पूजा की जाती है और उन्हें पशु बलि द्वारा प्रसन्न करने का प्रयास किया जाता है I ‘चिनडंग’ त्योहार की तैयारी पहले से ही शुरू हो जाती है I जलावन की लकड़ियाँ एकत्र की जाती हैं, नए मकान का निर्माण या पुराने मकान की मरम्मत की जाती है, मांस, मछली, मदिरा आदि का भंडारण किया जाता है I लोग नए कपड़े खरीदते हैं I पुजारियों के प्रमुख द्वारा त्योहार की तिथि निश्चित की जाती है I ग्राम प्रधान गाँववासियों को त्योहार की तिथि से अवगत कराता है I निर्धारित तिथि को एक बैठक आयोजित की जाती है जिसमें प्रत्येक घर के मुखिया शामिल होते हैं I बैठक में कार्यक्रम की रूपरेखा तय की जाती है, त्योहार के नियम बनाए जाते हैं तथा खर्चे का आकलन किया जाता है I त्योहार की तिथि का व्यापक प्रचार – प्रसार किया जाता है ताकि मीजी समाज विधि – निषेधों का पालन कर सके I मीजी महिलाएं इस त्योहार के लिए एक विशेष प्रकार की मदिरा तैयार करती हैं I गाँव के प्रत्येक घर से चंदा वसूला जाता है और चंदे की राशि से मिथुन, सूअर, बकरी, भेड़, मुर्गी, अंडे, चावल, सब्जियां इत्यादि सामग्रियों की खरीद की जाती है I ‘चिनडंग’ त्योहार आरंभ होने से पहले गाँव की गर्भवती महिलाओं को कहीं दूर भेज दिया जाता है और उन महिलाओं को पूजा स्थल से अलग रहने का परामर्श दिया जाता है जिन्हें मासिक धर्म हो रहा हो I गाँव के आसपास सफाई की जाती है और रास्ते की सफाई और उसकी मरम्मत की जाती है I घरों और धन्यागारों की सफाई की जाती है ताकि धन के देवता उनके घरों में आने और उन्हें आशीर्वाद देने में संकोच न करें I निर्धारित तिथि को पुजारी और उनके सहयोगी कुछ मंत्रों का उच्चारण कर देवताओं को विभिन्न सामग्रियां अर्पित करते हैं I दूसरे दिन सुबह गाँव के सभी लोग वेदी के समीप उपस्थित होते हैं I प्रत्येक घर की महिला पूजा के लिए तैयार मदिरा एवं अन्य खाद्य सामग्रियां लाकर वेदी के निकट रखती हैं I मिथुन की बलि का कार्यक्रम इस त्योहार का सबसे महत्वपूर्ण अनुष्ठान माना जाता है I बलि के बाद प्रार्थना की जाती है I शाम में सामुदायिक भोज आयोजित किया जाता है जिसमें नृत्य – गीत प्रस्तुत किए जाते हैं I यह आयोजन कई दिनों तक चलता है I लोग एक – दूसरे के घरों और गाँवों में जाते हैं जहाँ मदिरा, मांस, मछली से उनका स्वागत किया जाता है I अंत में सामुदायिक शिकार आयोजित किया जाता है I केवल पुरुष शिकार पर जाते हैं और शिकार से लौटने के बाद ‘चिनडंग’ त्योहार के अंतिम भोज का आयोजन किया जाता है I इस आयोजन के साथ ही ‘चिनडंग’ त्योहार का समापन हो जाता है I यह त्योहार सामुदायिक स्तर पर मनाया जाता है। इस त्योहार के अतिरिक्त मीजी जनजाति ‘खान गेलम’ त्योहार भी मनाता है। यह त्योहार व्यक्तिगत स्तर पर आयोजित किया जाता है। इस त्योहार में व्यय अधिक होता है I अतः सामान्यतः धनी लोग ही इस त्योहार का आयोजन करते हैं।

दुबा त्योहार (Duba Festival ) – अरुणाचल की मेंबा और खंबा दोनों जनजातियों की आबादी बहुत कम है। आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से ये जनजातियाँ बहुत पिछड़ी हुई हैं। भौगोलिक कारणों से ये लोग बाहरी दुनिया से कटे हुए हैं। आवागमन के साधनों का अभाव इनके विकास में बहुत बड़ी बाधा है। मेंबा समुदाय के लोग अरुणाचल के सियांग जिले में रहते हैं। मेम्बा समुदाय के लोग बौद्ध धर्म में विश्वास रखते हैं। ‘दुबा’ मेंबा जनजाति का प्रमुख त्योहार है। यह त्योहार एक सप्ताह तक मनाया जाता है। टुटिंग का गोम्पा इनके धार्मिक क्रियाकलापों का सबसे प्रमुख केंद्र है। पर्व के दिन रंग-बिरंगे कपड़ों में सुसज्जित होकर सभी लोग गोंपा में एकत्रित होते हैं। ‘दुबा’ का शाब्दिक अर्थ है ‘बुरी शक्तियों का विनाश।‘ मेंबा परंपरा के अनुसार यह त्योहार लोगों की भलाई और समाज में सुख-शांति की स्थापना के लिए मनाया जाता है। इस त्योहार को मनाने से बुरी शक्तियों का नाश होता है और अच्छी शक्तियों की प्रबलता के कारण समुदाय के लोग सुखी और स्वस्थ रहते हैं। सभी लोग दुर्भाग्य, रोग और प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा के लिए इष्ट देवता की प्रार्थना करते हैं। लोगों का विश्वास है कि दुबा त्योहार नहीं मनाने से वे सुखमय जीवन व्यतीत नहीं कर सकते हैं। इस पर्व के अवसर पर अजगर, घोड़े, सिंह, बंदर इत्यादि जानवरों के मुखौटे पहनकर लोग नृत्य करते हैं। त्योहार के तीसरे दिन गोम्पा के प्रमुख द्वारा लोगों को आशीर्वाद दिया जाता है I इसके बाद दो नर्तक मुखौटा पहनकर ‘दुर्बा’ नृत्य करते हैं I ‘दुर्बा’ नृत्य के बाद दो नर्तक ‘सवा’ नृत्य करते हैं और अंत में ‘लामा’ नृत्य होता है I समाज में शांति और सद्भाव स्थापित करना इस त्योहार का उद्देश्य है I इस त्योहार द्वारा अतीत में किए गए पापों से मुक्ति मिलती है और व्यक्ति भविष्य में पापाचार करने से डरता है I

मैको सुम फई (Mai Ko Sum Phai) – मैको सुम फई अरुणाचल प्रदेश की खाम्ती और शेरदुक्पेन जनजाति का त्योहार है I ये अरुणाचल की बौद्ध धर्मावलम्बी जनजातियाँ हैं I ‘मैकु’ का अर्थ है ‘बांस का टुकड़ा’ और ‘सुम्फई’ का अर्थ है ‘आग जलाना’। इस पर्व का आयोजन जाड़ा आरंभ होने से पूर्व किया जाता है। पर्व के कुछ दिन पहले से ही धान के खेतों में बाँस के टुकड़ों और लकड़ी का विशाल ढेर एकत्रित किया जाता है। त्योहार के दिन प्रातःकाल बाँस और लकड़ी के ढेर में आग लगाई जाती है। इसके उपरांत भोज का आयोजन किया जाता है। भोजन के पहले गौतम बुद्ध के उपदेशों और विचारों पर चर्चा की जाती है। पंचशील के सिद्धान्त में इन समुदायों की अगाध आस्था है जिसे ‘सीन-हा’ के नाम से जानते हैं । इन समुदायों के पास नृत्य नाटिका की समृद्ध परंपरा है। इसमें पौराणिक कहानियाँ और घटनाएँ संगुंफित रहती हैं। माघ पूर्णिमा बौद्ध धर्म के सभी अनुयायियों के लिए विशेष महत्व रखती है क्योंकि यह माना जाता है कि इस दिन गौतम बुद्ध ने अपनी आसन्न मृत्यु के बारे में बताया था। यह त्योहार बुद्ध के जीवन के अंतिम वर्षों की महत्वपूर्ण घटनाओं को श्रद्धांजलि देने के लिए मनाया जाता है। ऐसा कहा जाता है कि बुद्ध की बीमारी के दिनों में जब वह अस्सी वर्ष के थे तब वैशाली के लिच्छवी लोगों ने उनकी बहुत देखभाल की थी। उन्होंने बुद्ध को अच्छा भोजन कराया था जो चावल, तिल, यार्न, पत्तेदार सब्जियां, मूंगफली और मसालों का मिश्रण था। ताई लोग इस भोजन को ‘खाओ याकू’ कहते हैं। यह सर्दियों के मौसम के अंत और चंद्र वर्ष की गर्मियों के शुभारंभ के लिए भी मनाया जाता है।

मोपीन त्योहार (Mopin Festival)– मोपीन अरुणाचल प्रदेश की आदी जनजाति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहार है। यह वसंत ऋतु में मनाया जानेवाला एक धार्मिक-कृषकीय त्योहार है। प्रत्येक वर्ष अप्रैल में इसका आयोजन किया जाता है। जब खेती करने के लिए जंगलों को काटना और उन्हें साफ करना शुरू करते हैं तो यह त्योहार मनाया जाता है I फसल बोने के पूर्व अच्छी फसल और धन-धान्य की कामना से यह पर्व मनाया जाता है। ‘मोपीन’ का शाब्दिक अर्थ है अन्न की देवी। इस त्योहार में अन्नदेवी की आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया जाता है। अच्छी फसल, सुख, शांति, समृद्धि, अच्छे स्वास्थ्य और संपन्नता की मंगलाशा से आदी जनजाति की सभी उपजातियों द्वारा भव्यता के साथ मोपीन त्योहार आयोजित किया जाता है। यह पारिवारिक और सामूहिक दोनों स्तरों पर मनाया जाता है। मिथुन और सूअरों की बलि देना त्योहार का मुख्य आकर्षण होता है। इस पर्व में मोपीन देवी की मूर्ति बनाई जाती है। मोपीन देवी की मूर्ति बनाने के लिए पेड़ की टहनी और पत्तों का उपयोग किया जाता है I यह एकमात्र त्योहार है जिसमें आदी समुदाय द्वारा देवी – देवताओं की प्रतीकात्मक वेदी या मूर्ति बनाई जाती है I न्यीबो अथवा पुजारी संपूर्ण ग्रामवासी और समुदाय की सुख-समृद्धि और अच्छे स्वास्थ्य के लिए प्रार्थना-आराधना करते हैं और गीत गाते हैं। न्यिबो के नेतृत्व में लोग नाचते -गाते और खुशी मनाते हैं। वे सब एक – दूसरे के चेहरे पर चावल का चूर्ण (इती) लगाते हैं। इस अवसर पर समृद्धि और सौभाग्य की कामना से अलौकिक शक्तियों की प्रार्थना की जाती है और उन्हें भेंट चढ़ाई जाती है। मोपीन त्योहार में पवित्रता का ख़ास ध्यान रखा जाता है I जिस स्थान पर वेदी स्थापित की जाती है उसे ठीक प्रकार से साफ़ किया जाता है I इस त्योहार में न्यीबु (पुजारी) की महत्वपूर्ण भूमिका होती है I मोपीन त्योहार की शुरुआत पुजारी और उनके सहायकों द्वारा भजन गायन से होती है I भजन के साथ – साथ त्योहार से जुड़े आख्यानों का भी वाचन किया जाता है और इस अवसर पर पधारने के लिए देवी – देवताओं को आमंत्रित किया जाता है I पशु बलि मोपिन त्योहार का सबसे प्रमुख अनुष्ठान है I मोपीन देवी को प्रसन्न करने के लिए वेदी के समीप मुर्गी, सूअर, मिथुन इत्यादि पशु –पक्षियों की बलि दी जाती है I आदी समुदाय की मान्यता है कि चावल मोपीन माता का एक उपहार है तथा यह बहुत पवित्र अन्न है I इस त्योहार में चावल के आटे का बहुत उपयोग होता है I मोपीन की छवि और वेदी पर चावल का आटा छिड़का जाता है I महिलाओं की टोकरियों, बलि पशुओं, हथियारों आदि पर भी चावल का आटा लगाया जाता है I त्योहार में शामिल होनेवाले प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे पर चावल का आटा लगाया जाता है I इस त्योहार में विशेषज्ञ पुजारी ही मोपिन प्रार्थना कराते हैं I इस प्रार्थना में आख्यान, लोकगीत, लोककथा इत्यादि सब कुछ समाहित रहता है I प्रार्थना के साथ पुजारी लोक कल्याण के लिए आशीर्वाद भी देता है I इस त्योहार के आयोजन का प्रमुख उद्देश्य भरपूर पैदावार के लिए देवी मोपीन की प्रार्थना करना और बलि देकर उन्हें संतुष्ट करने का प्रयास करना है I

मिको अथवा म्योको (Micko or Myoko)– अरुणाचल प्रदेश की आपातानी जनजाति के लोग अनेक पर्व-त्योहार मनाते हैं । म्लोको अथवा म्योको आपातानी समाज का प्रमुख सामाजिक-धार्मिक पर्व है। यह तीन वर्षों के उपरांत प्रायः मार्च महीने में मनाया जाता है। तीन गाँव मिलकर संयुक्त रूप से इस त्योहार का आयोजन करते हैं। इस त्योहार के लिए पर्याप्त मात्रा में बलिपशु, मदिरा और चावल एकत्रित किए जाते हैं। इसकी तैयारी त्योहार से बहुत पूर्व आरंभ हो जाती है। सभी लोग यथाशक्ति इसमें अपना योगदान करते हैं। इसके अवसर पर आस-पास के गाँव के लोग भी आमंत्रित किए जाते हैं। त्योहार के प्रथम दिन को ‘समा पिदु’ कहा जाता है। पुजारी द्वारा देवी-देवताओं के आवाहन के साथ पर्व का शुभारंभ होता है। इस अवसर पर गीत-नृत्य प्रतियोगिता भी आयोजित की जाती है। त्योहार के तीसरे दिन सूअर की बलि दी जाती है। यह इस त्योहार का प्रमुख अनुष्ठान है। पुजारी पारंपरिक परिधान धारण कर आपातानी जनजाति और मनुष्य की उत्पत्ति एवं उनके विकास की कथा कहता है। इसमें आबो तानी की भी पूजा की जाती है, लेकिन प्रमुख रूप से जिस देवी की पूजा की जाती है उसका नाम ‘सुकी’ है I

सोलुंग त्योहार (Solung Festival)– सोलुंग अरुणाचल प्रदेश के पदाम-मिनयोंग(आदी) वर्ग का सबसे प्रमुख पर्व है। इसे पासी, पदाम, मिलंग, कोमकर, पंगी, मिन्योंग और आदी जनजाति की कुछ अन्य उपजातियां धूमधाम से मनाती हैं I अरुणाचल के सुदूर स्थानों पर जून- जुलाई में इस त्योहार का आयोजन किया जाता है जबकि मुख्य समारोह का आयोजन सितम्बर में किया जाता है I सोलुंग शब्द दो शब्दों के योग से बना है – ‘इसो’ और ‘अलुंग’। ‘इसो’ का अर्थ है ‘मिथुन’ तथा ‘अलुंग’ का अर्थ होता है ‘पशु-पक्षियों या मनुष्यों का समूह।‘ ये दो शब्द जब संयुक्त होते हैं तो दोनों का प्रथम वर्ण लुप्त हो जाता है। तब यह ‘सोलुं’ग बन जाता है। सोलुंग के दो अर्थ हैं – लुत्तर एवं लूने। लुत्तर का अर्थ है एत्तोर पर्व और लूने का अर्थ है सोलुंग पर्व। लुत्तर पुरुष का संकेतक है और लूने स्त्री का। आदी जनजाति के इस त्योहार का धार्मिक के साथ – साथ कृषकीय महत्व भी है। खेतों में बुवाई हो जाने के बाद यह त्योहार मनाया जाता है। इस पर्व में अन्नदेवी से अच्छी फसल के लिए प्रार्थना की जाती है। इसे सोलुंग एत्तोर भी कहा जाता है। इस पर्व में आदी लोग दोईंग-बोते (संरक्षक देवता), किने-नाने (समृद्धि की देवी), दादी-बोते (घरेलू पशुओं के देवता) और गुमीन-सोयीन (कुलदेवता और ग्रामदेवता) की पूजा- आराधना करते हैं। देवी-देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मिथुन, सूअर इत्यादि पशुओं की बलि दी जाती है। इस पर्व से अनेक मिथक जुड़े हुए हैं जो आदी समाज की प्राचीन संस्कृति पर प्रकाश डालते हैं। किन-नाने को प्रसन्न करने के लिए लड़कियों द्वारा पोनुंग नृत्य भी पेश किया जाता है। पोनुंग का नेतृत्व मीरी (गायक) करता है। वह अबांग का वर्णन करता है जिसमें सृष्टि की उत्पत्ति, मनुष्यों की उत्पत्ति, जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति से संबंधित मिथकों का वर्णन होता है। इस त्योहार के ‘पोनुंग गीत’ में फसलों की उत्पत्ति के संबंध में वर्णन है I

लोसर त्योहार (Losar Festival) – लोसर अरुणाचल प्रदेश का प्रमुख त्योहार है I प्रदेश के मोंपा, शेरदुक्पेन, मेम्बा, खम्बा इत्यादि जनजातियाँ उत्साहपूर्वक यह त्योहार मनाती हैं। ये जनजातियाँ बौद्ध धर्म की महायान शाखा में विश्वास करती हैं I तिब्बती भाषा के अनुसार लोसर का अर्थ नववर्ष होता है। यह पर्व प्रति वर्ष 11 फरवरी को आरंभ होता है और तीन दिनों तक मनाया जाता है। इसे 10 – 15 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है I पुराने वर्ष की विदाई और नए वर्ष के स्वागत के लिए इसका आयोजन किया जाता है। इस समय खेत में लगी फसल कट चुकी होती है तथा आगामी पाँच-छह महीने के लिए भेड़, याक, मिथुन इत्यादि जानवरों के मांस सुखाकर रख दिये जाते हैं। लोग कामों से मुक्त रहते हैं। यह त्योहार हर्षोल्लास और धार्मिक समर्पण भाव से मनाया जाता है। त्योहार के एक महीना पहले से ही इसकी तैयारी आरंभ हो जाती है। लोग अपने-अपने घरों एवं आस-पास की सफाई करते हैं। त्योहार के लिए पर्याप्त मात्रा में चावल की मदिरा (चांग), मांस, खाप्से (आटा का बना व्यंजन) और मामों (एक व्यंजन जो चावल और मांस से तैयार होता है) तैयार करते हैं। लामा के निर्देशन में गाँव के सभी लोग त्योहार के प्रथम दिन गोम्पा में जाकर प्रार्थना करते हैं और भगवान बुद्ध से सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। प्रथम दिन को लामा लोसर कहते हैं। इस दिन लामा लोग पुराने लामाओं के यहाँ जाकर उनका अभिवादन करते हैं, उन्हें सम्मान देते हैं। सभी लोग पूजागृह में जाकर सबकी सुख शांति के लिए प्रार्थना करते हैं और मिष्ठान ग्रहण करते हैं। दूसरा दिन ‘राजा लोसर’ के रूप में मनाया जाता है। सभी लोग एक-दूसरे के घरों में जाकर शुभकामनायें देते हैं। इस त्योहार के अवसर पर नृत्य-गीत का आयोजन किया जाता है । इस दिन वे लोग अपना परंपरागत खेल खेलकर अपना मनोरंजन करते हैं। इस पर्व के संबंध में एक सामान्य मान्यता यह है कि इस दिन जो खुशी-खुशी अपनी दिनचर्या व्यतीत करेगा वह आनेवाले वर्ष में खुश रहेगा। इसलिए इस त्योहार के समय लोग तनावमुक्त और प्रसन्न रहते हैं। इसका आयोजन पंद्रह दिनों तक किया जाता है। ‘लोसर’ नववर्ष का त्योहार है। यह जनवरी के अंतिम सप्ताह से लेकर फरवरी के द्वितीय सप्ताह तक मनाया जाता है। त्योहार के प्रथम दिन सभी ग्रामवासी ब्रह्ममुहूर्त में ही जग जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस दिन जो देर तक सोया रहेगा उसका आने वाला वर्ष सुखमय व्यतीत नहीं होगा। स्नान करने के उपरांत लोग नए कपड़े धारण करते हैं और महिलाओं द्वारा बनाया गया बिस्कुट खाते हैं। बिस्कुट को ‘खासपेर’ कहा जाता है। नास्ते के बाद ये लोग मदिरा पान करते हैं। इसके बाद लामा प्रत्येक घर में जाकर पारंपरिक विधि से त्योहार का संस्कार संपन्न कराता है। पर्व के अंतिम दिन सभी ग्रामवासी गोम्पा में जाकर ईश्वर से अपनी सुख-समृद्धि और धन-वैभव की कामना करते हैं। त्योहार के अंतिम चरण में सभी गांववासी किसी नदी या झरने के तट पर जाकर नाचते-गाते और खुशी मनाते हैं तथा एक-दूसरे पर जल का छिड़काव करते हैं। छोटा व्यक्ति बड़े-बूढ़ों से आशीर्वचन लेता है और उनसे इनाम भी प्राप्त करता है।

छेकर त्योहार (Chhekar Festival) – शेरदुक्पेन जनजाति के लोग अरुणाचल के पश्चिमी कामेंग जिले में रहते हैं । प॰ कामेंग जिले का रूपा, जिगांव और शेरगांव नामक तीन गांवों में ही मुख्य रूप से इनकी अधिकांश आबादी निवास करती है। इस क्षेत्र की प्रमुख नदी कामेंग हैं जिसके नाम पर जिले का नामकरण किया गया है। ये लोग बौद्ध धर्म की महायान शाखा में निष्ठा रखते हैं I भगवान बुद्ध को स्थानीय भाषा में ‘कोंचोजम’ कहा जाता है। शेरदुक्पेन लोग कई त्योहार मनाते हैं जिनमें ‘लोसर’ और ‘छेकर’ सबसे महत्वपूर्ण है। इन त्योहारों में ये धन-धान्य और आरोग्य के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते हैं। छेकर इस समुदाय का एक महत्वपूर्ण पर्व है। यह मई माह में एक सप्ताह तक मनाया जाता है। यह धन-धान्य और सुखाकांक्षा से मनाया जाने वाला रंगारंग त्योहार है। इसमें भी भगवान बुद्ध एवं अन्य बौद्ध महापुरुषों की पूजा की जाती है। पर्व से संबंधित विधि-संस्कार बौद्ध लामाओं के हाथों संपन्न कराया जाता है। त्योहार के प्रथम और दूसरे दिन ग्रामवासियों के कल्याण और सुख के लिए लामा लोग बौद्ध मठों में प्रार्थना करते हैं। दुष्ट आत्माओं को भी चढ़ावा चढ़ाया जाता है। लोगों का विश्वास है कि दुष्ट आत्माएं अप्रसन्न होने पर रोग का कारण बनती हैं। इसलिए इन्हें प्रसन्न करने के लिए चढ़ावा चढ़ाया जाता है।

संकेन त्योहार (Sangken Festival) – संकेन अरुणाचल प्रदेश के खाम्ती, सिंहफ़ो और कुछ अन्य बौद्ध धर्मावलम्बी समुदायों का प्रमुख त्योहार है I ये लोग बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा में आस्था रखते हैं I ये लोग परंपरागत उल्लास के साथ यह त्योहार मनाते हैं। यह त्योहार चैत्र-वैशाख (मार्च-अप्रैल) महीने में मनाया जाता है। यह बौद्ध कैलेंडर के अनुसार नववर्ष का पर्व है। इस अवसर पर भगवान बुद्ध की प्रतिमा को समारोहपूर्वक स्नान कराया जाता है। ‘संकेन’ का शाब्दिक अर्थ है जल-क्रीड़ा। इस दिन स्त्री-पुरुष और बच्चे एक – दूसरे पर जल छींटते हैं और नववर्ष की बधाई देते हैं। त्योहार के दस – पंद्रह दिन पहले से ही इसकी तैयारी आरंभ हो जाती है। गाँव के नवयुवक एक अस्थाई चांग का निर्माण करते हैं तथा उसे फूल-पत्तियों से सजाते हैं। गोम्पा से भगवान बुद्ध की मूर्ति को निकालकर उसे अस्थाई मठ में स्थापित किया जाता है। इस मठ को स्थानीय भाषा में ‘क्यांग-फ्रा’ कहते है। ‘क्यांग-फ्रा’ को पुष्प, पत्तियों और झालर से सजाया जाता है I मूर्ति पर जल का छिड़काव त्योहार का प्रमुख आकर्षण होता है। पुजारीगण कुछ मंत्रों का उच्चारण करते हैं तथा नवयुवक, पुरुष और महिलाएं नाचते-गाते और मूर्ति पर जल चढ़ाते हैं। लड़के-लड़कियां एक – दूसरे पर जल और कीचड़ डालते हैं। सायंकाल में संपूर्ण ग्राम के निवासी उस स्थान पर एकत्रित होते हैं और चांग में मोमबत्ती जलाते हैं तथा सुख-समृद्धि के लिए प्रार्थना करते हैं। दूसरे दिन प्रतिमा को अंतिम स्नान कराकर पुनः उसे गोम्पा में स्थापित कर दिया जाता है। उस समय भी पुजारीगण कुछ मंत्रों का उच्चारण करते हैं। लोग नाच-गाकर खुशियाँ मनाते हैं तथा एक-दूसरे पर जल छिड़ककर नववर्ष की शुभकामनायें देते हैं। जल का छिड़काव करने के कारण इस पर्व को जल पर्व भी कहा जाता है। आपसी वैमनस्य को भूलकर सभी आयु-वर्ग के स्त्री पुरुष एक-दूसरे पर जल का छिड़काव करते हैं और मिठाइयाँ खिलाते हैं। यह पुराने वर्ष की विदाई और नूतन वर्ष के स्वागत में मनाया जानेवाला त्योहार है।

लोकु त्योहार (Loku Festival)- लोकु तिरप जिले के नोक्ते जनजाति का मुख्य त्योहार है I यह त्योहार जाड़े को विदाई देने के लिए मनाया जाता है। ‘लोकु’ शब्द स्थानीय बोली के दो शब्दों से आया है – ‘लोफ़े’ और ‘रंगकु’ I ‘लोफ़े’ का अर्थ है बाहर निकालना और ‘रंगकु’ का अर्थ है ऋतु, अर्थात यह त्योहार जाड़े को बाहर निकालने का उत्सव है I लोकु या चलो लोकु फरवरी महीने में मनाया जाता है I इसे कृषि त्योहार माना जाता है। त्योहार की तिथि बुजुर्गों द्वारा तय की जाती है । यह तीन दिवसीय त्योहार है जिसकी शुरुआत ‘फमलामजा’ से होती I इस दिन मांस के लिए सूअर और भैंस जैसे जानवरों का वध किया जाता है I इसके बाद गाँव के लोग अगले दिन की तैयारी में लग जाते हैं। लोग अपने पारंपरिक परिधानों की जांच करते हैं जिसे समारोहों के दौरान पहना जाता है। त्योहार के दूसरे दिन को ‘चमकताजा’ के नाम से जाना जाता है I इस दिन परिवार के पुरुष सदस्यों को पांग (निर्णय लेनेवाली समिति) का पूर्ण सदस्य बनाया जाता है । वास्तव में प्रत्येक परिवार के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपने प्रत्येक पुरुष सदस्य के लिए ‘चमकत’ नामक अनुष्ठान करे जिसने किशोरावस्था प्राप्त कर ली है। तीसरे और अंतिम दिन को ‘थनलंगजा’ कहा जाता है I इस दिन गाँव के सभी उम्र के पुरुष – महिला लोक नृत्य में शामिल होते हैं । चीफ के घर पर और ‘पांग’ (युवागृह) के परिसर में भी नृत्य किया जाता है। अनेक परिवार अपने घर पर प्रदर्शन करने के लिए नर्तकों को आमंत्रित करते हैं और प्रतिभागियों को भोजन और पेय प्रदान करते हैं। थानलंगजा लोगों के लिए अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलने का दिन भी है।

मोल त्योहार (Mol Festival)– मोल अरुणाचल प्रदेश के चांगलांग जिले में रहनेवाली तांग्सा जनजाति (मुकलोम उपजाति) का प्रमुख त्योहार है I सुख – समृद्धि और अच्छी फसल की कामना से यह त्योहार मनाया जाता है I मुकलोम समाज के सभी लोग एक जगह एकत्रित होकर ईश्वर की प्रार्थना करते हैं I मुकलोम मिथक के अनुसार सर्वप्रथम जब ईश्वर ने सृष्टि की रचना की तो सर्वत्र केवल अंधकार था I ईश्वर ने प्रकाश, दिन और रात, पृथ्वी, आकाश, पशु – पक्षी, पेड़ – पौधे और अंत में मनुष्य की रचना की I मुकलोम समुदाय के लोग सामान्यतः दो तरह से मोल त्योहार आयोजित करते हैं I समुदाय स्तर पर “रोम मोल” और “थल मोल” का आयोजन किया जाता है I खरीफ की खेती करने से पहले सूअर, बकरी, मुर्गी आदि की बलि देकर ईश्वर से अच्छी फसल और पशुधन के आरोग्य की कामना की जाती है I आजकल इस त्योहार का स्वारूप थोड़ा परिवर्तित हो गया है I अब मोल त्योहार का आयोजन समुदाय स्तर पर किसी सार्वजनिक स्थान पर किया जाता है I रबी फसल कट जाने के बाद वर्ष में एक बार तीन दिनों के लिए इस त्योहार का आयोजन किया जाता है I इस अवसर पर नृत्य – गीत प्रस्तुत किए जाते हैं I मुकलोम समुदाय के बुजुर्ग महिला – पुरुष आगे – आगे गीत गाते हैं और बाद में अन्य लोग उनका अनुसरण करते हैं I सभी लोग दिन – रात मदिरा पीते हैं और त्योहार का आनंद मनाते हैं I

*वीरेन्द्र परमार

जन्म स्थान:- ग्राम+पोस्ट-जयमल डुमरी, जिला:- मुजफ्फरपुर(बिहार) -843107, जन्मतिथि:-10 मार्च 1962, शिक्षा:- एम.ए. (हिंदी),बी.एड.,नेट(यूजीसी),पीएच.डी., पूर्वोत्तर भारत के सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषिक,साहित्यिक पक्षों,राजभाषा,राष्ट्रभाषा,लोकसाहित्य आदि विषयों पर गंभीर लेखन, प्रकाशित पुस्तकें :1.अरुणाचल का लोकजीवन 2.अरुणाचल के आदिवासी और उनका लोकसाहित्य 3.हिंदी सेवी संस्था कोश 4.राजभाषा विमर्श 5.कथाकार आचार्य शिवपूजन सहाय 6.हिंदी : राजभाषा, जनभाषा,विश्वभाषा 7.पूर्वोत्तर भारत : अतुल्य भारत 8.असम : लोकजीवन और संस्कृति 9.मेघालय : लोकजीवन और संस्कृति 10.त्रिपुरा : लोकजीवन और संस्कृति 11.नागालैंड : लोकजीवन और संस्कृति 12.पूर्वोत्तर भारत की नागा और कुकी–चीन जनजातियाँ 13.उत्तर–पूर्वी भारत के आदिवासी 14.पूर्वोत्तर भारत के पर्व–त्योहार 15.पूर्वोत्तर भारत के सांस्कृतिक आयाम 16.यतो अधर्मः ततो जयः (व्यंग्य संग्रह) 17.मणिपुर : भारत का मणिमुकुट 18.उत्तर-पूर्वी भारत का लोक साहित्य 19.अरुणाचल प्रदेश : लोकजीवन और संस्कृति 20.असम : आदिवासी और लोक साहित्य 21.मिजोरम : आदिवासी और लोक साहित्य 22.पूर्वोत्तर भारत : धर्म और संस्कृति 23.पूर्वोत्तर भारत कोश (तीन खंड) 24.आदिवासी संस्कृति 25.समय होत बलवान (डायरी) 26.समय समर्थ गुरु (डायरी) 27.सिक्किम : लोकजीवन और संस्कृति 28.फूलों का देश नीदरलैंड (यात्रा संस्मरण) I मोबाइल-9868200085, ईमेल:- [email protected]