मकड़ी
”न तो कोरोना खत्म हो पा रहा है, न लॉकडाउन. अभी एक लॉकडाउन समाप्त होता ही नहीं, कि कोरोना के केस बढ़ने शुरु हो जाते हैं. सारी दुनिया परेशान है.” वह परेशान भी था और भयभीत भी.
‘वर्क फ्रोम होम’ चल रहा है. लेकिन वर्क करने का माहौल तो मिले! कभी बच्चों की ‘डिस्टैंस एजुकेशन’ के लिए टी.व्ही. चलता, तो कभी ममी-पापा के रामायण-महाभारत देखने के लिए. पत्नी भी बड़ी अधिकारी हैं, उन को भी शांत वातावरण चाहिए. घरेलू सहायक नहीं आ रहे, उनका काम भी देखना-संभालना पड़ता था.” कुल मिलाकर सब गड्डमड्ड था. वह कैद में परेशान था.
”माता-पिता उम्र के पक्के हैं और बच्चे उम्र के कच्चे, तो रोजमर्रा की खरीदारी भी मुझको ही करनी होती है.” वह सोचता.
मकड़ी भी परेशान थी. छोटी-सी मकड़ी उड़कर उसके कान में चली तो गई, पर कैद में परेशान होकर छटपटाने लगी थी. वह भी इस एक और अतिरिक्त मुसीबत से परेशान था. मकड़ी की छटपटाहट ने उसके कान का जमा मैल निकाल दिया. शुक्र है अव उसे अच्छी तरह सुनाई देगा, यह सोचकर वह खुश हो गया. छटपटाकर आखिर मकड़ी निकल गई और उसके कान को साफ कर गई.
”ठीक इसी तरह कोरोना भी छटपटाकर भाग जाएगा और बहुत कुछ बुरा निकाल जाएगा, अच्छा छोड़ जाएगा.” निर्भय होकर वह उछल पड़ा.
कोरोना से मुकाबला करने को अब वह पूरी तरह तैयार था.
वक़्त कैसा भी हो गुज़र जाता है
खुशनुमा हो या गमजदा गुज़र जाता है
हम ही नही चल पाते साथ इस के
यह तो सब का साथ निभाता है