भाषा-साहित्यलेख

बलायचंद मुखोपाध्याय ‘बनफूल’ की निजी जिंदगी और प्रणीत रचना-संसार

मनिहारी से ‘बनफूल जन्मस्थली पुरस्कार’ की शुरुआत हो तथा स्थानीय स्थापित साहित्यकारों को सादरामन्त्रित कर प्रतिवर्ष उन्हें पुरस्कृत भी की जाय । धीरे -धीरे पुरस्कार का विस्तार स्थानीय स्थापित साहित्यकारों के इतर भी हो ! पुरस्कार राशि स्थानीय जनप्रतिनिधियों, पदाधिकारियों, अधिवक्ताओं, शिक्षकों, शुभेच्छुओं से सादर ग्रहण की जाय ! जो कुछ बने, मैं भी इस हेतुक सदैव तत्पर रहूँगा ! पर इस हेतु चयन समिति में साहित्य या साहित्येतर कथित मठाधीशों को इनमें कतई जगह नहीं मिले और ना ही पॉलिटिक्स की बातें इसके विन्यस्त: हो ! आइये, रवीन्द्र पुरस्कार विजेता और पद्म भूषण ‘बनफूल’ पर और भी विशेष बातों को जानते हैं….

हिंदी न्यूज़ (7 जनवरी 2013) में ‘साहिबगंज’ के रेलवे हाईस्कूल से एन्ट्रेंस पासआउट बांग्ला उपन्यासकार ‘बनफूल’ के बारे में कुछ नई जानकारी इकट्ठी हुई है, जिनमें सत्य पक्ष लिए संशोधन लिए पाठकों व मित्रो के अवलोकनार्थ उद्धृत कर रहा हूँ…  उनके जीवित रहते हिंदी फ़िल्म ‘बनफूल’ 1971 में आई थी, इस फिल्म की एक गीत– ‘मैं जहाँ चला जाऊं, बहार चली आए; महक जाए, राहों की धूल, मैं बनफूल…’ की तरह 60 से ज्यादा उपन्यासों सहित 600 से अधिक कहानियों के जरिए देश-विदेश में मनिहारी (तब पूर्णिया जिला) के बाद ‘साहिबगंज’ की भी सुरभि बिखेरनेवाले व पद्मभूषण से सम्मानित प्रख्यात बंगला साहित्यकार बनफूल उर्फ डाक्टर बलाई चन्द्र मुखर्जी की स्मृतियाँ आज साहिबगंज में गिने-चुने लोगों की स्मृति में रची-बसी है।

जबकि उनके देहांत के कई वर्षो बाद भी नई दिल्ली स्थित हिंदी के पहले पॉकेट बुक्स ‘हिंद पाकेट बुक’ और शाहदरा, दिल्ली के ‘सुरेंद्र कुमार एण्ड सन्स प्रकाशन’ से प्रकाशित उनकी पुस्तकों की मांग बनी हुई है। साहिबगंज में बनफूल के जीवन से जुड़ी यादें अब यहाँ के लोगों के बीच धूमिल पड़ती जा रही है, जिसे बचाने का प्रयास भी नहीं हो रहा है, जबकि भारत की आजादी से पहले साहिबगंज के पास ही सकरीगली रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के अचानक ठहरने की एक घटना से जुड़ी ‘बनफूल’ के रिपोर्ताज़ पर उनके अनुज व टॉलीवुड के प्रसिद्ध फिल्म निर्माता अरविंद मुखर्जी द्वारा बनाई फिल्म ‘किछु खन’ (कुछ क्षण) को राष्ट्रपति द्वारा ‘स्वर्ण कमल’ व राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। साहिबगंज कॉलेज द्वारा बनफूल के सम्मान में इस कॉलेज के भूतपूर्व प्राचार्य डा. शिवबालक राय के सम्पादकत्व में प्रकाशित साहित्यिक पत्रिका ‘बनफूल’ भी अब बंद हो चुकी है।

….तो साहिबगंज के रेलवे हाईस्कूल, जहाँ से बनफूल ने एन्ट्रेंस तक शिक्षा पाई और साहिबगंज कॉलेज रोड का ‘नीरा लॉज’ (कालांतर में होटल), जहाँ उनका आवास था, अब यह किसी की स्मृति में नहीं है, न ही इन सुखद स्मृतियों को सँजोने का कार्य ही हो रहे हैं, जबकि आज भी साहिबगंज पर केंन्द्रित उनकी कृतियों में शिकारी, निर्मोक, मनिहारी सहित रामू ठाकुर, कुमारसंभव, खोआघाट, जेठेर माय जैसी कथा -संसार ने देश-विदेश में बनफूल, मनिहारी और साहिबगंज की पहचान को प्रतिबद्ध की हुई है। ध्यातव्य है, बांग्ला साहित्य में कवीन्द्र रवींन्द्र, शरतचंद्र व बंकिमचंद्र के बाद आम -आदमी की पीड़ा को लेखनबद्ध करने में बनफूल का महत्वपूर्ण अवदान रहा है, तो इनकी कई रचनाओं में साहिबगंज की सामाजिक, मार्मिकता अथवा राजनीतिक क्षणों का चित्रण प्रस्तुत किया है। इस संबंध में शहर के बंगाली टोला में रहने वाले बनफूल के एक वयोवृद्ध रिश्तेदार तरूण कुमार चटर्जी बताते हैं कि उनका जन्म तो मनिहारी में हुआ था।

वे साहिबगंज तो पढ़ने आए थे । रेलवे हाईस्कूल में पढ़ने के दौरान शिक्षक बोटू बाबू ने इनकी साहित्यिक प्रतिभा को पहचाना था और लिखने के लिए प्रेरित किया था। फलस्वरूप छात्र जीवन में ही स्कूल से निकलने वाली हस्तलिखित पत्रिका के वे संपादक बन चुके थे। हायर सेकेंड्री व आई एस सी की पढ़ाई हजारीबाग से पूर्ण की थी । उनका साहित्यिक अनुराग वहाँ से शुरू होकर भागलपुर में पैथोलोजिस्ट बन आदमपुर चौक पर क्लिनिक संचालन के साथ -साथ साहित्य में फर्राटा भर लिये और पूर्णरूपेण साहित्यिक गतिविधियों से जुड़ गए, लेकिन डाक्टरी में बनफूल का मन न लगा और भागलपुर छोड़ बांग्ला साहित्य की सेवार्थ कोलकाता पहुंच गए।

बावजूद उनके साहिबगंज से जुड़ाव अंततः रहा और साहिबगंज कालेज के पूर्व प्राचार्य शिवबालक राय के कार्यावधि में वे ‘बंग साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता करने जरूर आ जाते थे । बनफूल के साहिबगंज से गहरे लगाव से संबंधित एक घटना के संबंध में शहर के वयोवृद्ध अधिवक्ता ठाकुर राजेन्द्र सिंह चौहान कहते हैं– “बनफूल जब भी साहिबगंज आते थे, अपने स्कूल जीवन के निवास स्थल ‘नीरा लॉज’ में ही ठहरते थे। साहित्यकार के साथ वे बड़े प्रसिद्ध चिकित्सक तो थे ही, तभी तो दूरदराज के लोग उनके पास इलाज कराने भागलपुर अवश्य पहुंचते थे। साहिबगंज के प्रति गहरा लगाव रखनेवाले व देश-दुनिया में विशिष्ट पहचान रखनेवाले लेखक व चिकित्सक बनफूल अब साहिबगंज में गिने-चुने लोगों और किताबों तक सिमट कर रह गए हैं !”

गंगा, कोशी और महानंदा के त्रिवेणी संगम पर बस मनिहारी की धरती हर दौर में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाई है। भास्कर न्यूज (9 फरवरी 2019) ने बनफूल के बारे में लिखा है कि वे बांग्ला साहित्य जगत में स्थापित नाम थे । उन्होंने 1935 से आधिकारिक रूप से अपनी लेखन शुरुआत की थी । सन 1936 में जब उनकी पहली रचना ‘बैतरणी तीरे’ प्रकाशित हुई, तब से ही उन्हें प्रतिष्ठा मिलने लगी । इसके बाद उन्होंने सैकड़ों कहानियाँ लिखी, जिनमें किछु खोन, जाना, नवदिगंत, उर्मिला, रंगना और उनकी अंतिम कहानी ‘हरिश्चंद्र’ (1979) काफी चर्चित रही थी। उनकी याद में भारत सरकार ने उनपर 3 रु. का डाक टिकट जारी करने के साथ-साथ 22 नवंबर 1999 को तत्कालीन रेल मंत्री ममता बनर्जी ने उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘हाटे बजारे’ के नाम पर कटिहार से सियालदह (कोलकाता) के बीच उनकी एक कृति के नाम पर ‘हाटेबजारे एक्सप्रेस’ ट्रेन चलवाई थी।

अब यह ट्रेन उसी नाम से सहरसा- सियालदह (कोलकाता) वाया कटिहार होकर चलती है। भारत सरकार द्वारा ‘पद्मभूषण’ मिलने के बावजूद बिहार सरकार, प. बंगाल सरकार, झारखंड सरकार द्वारा उचित सम्मान नहीं मिलने से उनके परिजन आहत हैं। उनकी जन्मस्थली व मनिहारीवासियों का कहना है कि ‘बनफूल’ के आवास डाकबंगला समीप (जहाँ अभी उनके भतीजे श्री उज्ज्वल मुखर्जी उर्फ़ मुकुल’दा रह रहे हैं) तथा मनिहारी पीएचसी समीप स्थल को ‘बनफूल जन्मस्थली’ के रूप में बिहार सरकार विकसित करें, तो स्मृति सँजोने के साथ -साथ यह पर्यटन क्षेत्र के रूप में भी विकसित होगा ! अगर पद्म अवार्ड -प्रोटोकॉल के मानिंद भी सोची जाय, तो पद्मश्री प्राप्त करनेवाले फणीश्वरनाथ रेणु की बिहार सरकार पूजा करते हैं, किन्तु पद्मभूषण प्राप्त करनेवाले बनफूल की इतनी उपेक्षा क्यों ? मनिहारीवासी उनकी धरोहर को स्मारक व मेमोरियल के रूप में देखना चाहते हैं!

बलायचंद मुखोपाध्याय ‘बनफूल’ प्रणीत रचना संसार :-

●उपन्यास :- तृणखण्ड (1935), वैतरणी तीरे (1936), किछुखण (1937), द्वैरथ (1937), मृगया (1940), निर्मोक (1940), रात्रि (1941), से ओ आमि (1943), जंगम (चार खण्डों में, 1943-45), सप्तर्षि (1945), अग्नि (1946), स्वप्नसम्भव (1946), न… तत्पुरुष (1946), डाना (तीन खण्डों में, 1948, 1950, 1955), मानदण्ड (1948), भीमपलश्री (1949), नवदिगन्त (1949), कष्टिपाथर (1951), स्थावर (1951), लक्ष्मीर आगमन (1954), पितामह (1954), विषमज्वर (1954), पंचपर्व (1954), निरंजना (1955), उज्जवला (1957), भुवन सोम (1957), महारानी (1958), जलतरंग (1959), अग्नीश्वर (1959), उदय अस्त (दो खण्डों में, 1959, 1974), दुई पथिक (1960), हाटे बाजारे (1961), कन्यासु (1962), सीमारेखा (1962), पीताम्बरेर पुनर्जन्म (डिकेन्स कृत खिश्टन कैरोन पर आधारित, 1963), त्रिवर्ण (1963), वर्णचोरा (1964), पक्षी मिथुन (1964), तीर्थेर काक (1965), गन्धराज (1966), मानसपुर (1966), प्रच्छन्न महिमा (1967), गोपालदेवेर स्वप्न (1968), अधिक लाल (1969), असंलग्ना (1969), रंगतुरंग (1970), रौरव (1970), रुपकथा एवं तारपर (1970), तुमि (1971), एराओ आछे (1972), कृष्णपक्ष (1972), सन्धिपूजा (1972), नवीन दत्त (1974), आशावरी (1974), प्रथम गरल (1974), सात समुद्र तेरो नदी (1976), अलंकारपुरी (1978), ली (1978), हरिश्चन्द्र (1979).

●काव्य :- बनफूलेर कविता (1936), चतुर्दशी (1940), अंगारपर्णी (1940), आहरणीय (1943), करकमलेषु (1946), बनफूलेर व्यंग्य कविता (1958), नूतन बाँके (1959), सुरसप्तक (1970).

●नाटक :- मंत्रमुग्ध (1938), रुपान्तर (1938), श्रीमधुसूदन (1939), विद्यासागर (1941), मध्यवित्त (1943), दशभान (1944), कंचि (1945), सिनेमार गल्प (1946), बन्धनमोचन (1948), दशभान ओ आरो कयेकटि (1952), शृणवस्तु (1963), आसन्न (1973), त्रिनयन (तीन नाटक, 1976).

●कहानी संग्रह :- बनफूलेर गल्प (1936), बनफूलेर आरो गल्प (1938), बाहुल्य (1943), विन्दु विसर्ग (1944), अदृश्यलोक (1946), आरो कयेकटि (1947), तन्वी (1952), नव मंजरी (1954), उर्मिमाला (1955), रंगना (1956), अनुगामिनी (1958), करबी (1958), सप्तमी (1960), दूरबीन (1961), मनिहारी (1963), छिटमहल (1965), एक झाँक खंजन (1967), अद्वितीया (1975), बहुवर्ण (1976), बनफूलेर नूतन गल्प (1975), माया कानन (1978). इत्यादि।

●कहानी संचयन :- बनफूलेर गल्प संग्रह (दो खण्डों में, 1955 और 1957), तिन काहिनी (1961), बनफूलेर गल्प संग्रह (सौ-सौ कहानियों के तीन खण्ड, 1961, 1965 और 1970), चतुरंग (1974), बनफूल वीथिका (1974), दिवस यामिनी (1976), बनफूलेर श्रेष्ठ गल्प (1976), राजा (1977), बनफूलेर हासि गल्प (1978), बनफूलेर शेष लेखा (1979).

●निबन्ध :- उत्तर (1953), शिक्षार भित्ति (1955), मनन (1962), द्विजेन्द्र दर्पण (1967), हरिश्चन्द्र (1979).

●संस्मरण :- भूयो दर्शन (1942), रवीन्द्र स्मृति (1968), डायरी- मर्जिमहल (1974).

●आत्मजीवनी :- पश्चातपट (1978).

●रम्यरचना :- चूड़ामणि रसार्णव (1976).

●व्याख्यान :- भाषण (1978).

●बालसाहित्य :- छोटोदेर श्रेष्ठ गल्प (1958), छोटोदेर भालो भालो गल्प (1961), बनफूलेर किशोर समग्र (1978).

●अन्य :- बनफूल रचना संग्रह (15 खण्डों में), बनफूलेर छोटोगल्प समग्र (दो खण्डों में, 2003), बनफूल रचनावली (24 खण्डों में, सम्पादक- सरोजमोहन मित्र, शचीन्द्रनाथ बंद्योपाध्याय एवं निरंजन चक्रवर्ती).

●कृतित्व पर केन्द्रित पुस्तकें :- बनफूलेर कथा साहित्य (सं.- धीमान दासगुप्त, 1983), बनफूलेर फूलवन (ले.- सुकुमार सेन, 1983), कथाकोविद बनफूल (ले.- निशीथ मुखोपाध्याय, 1989), बनफूल: जीवन, मन ओ साहित्य (ले.- उर्मि नन्दी, 1997), बनफूलेर जीवन ओ साहित्य (ले.- निशीथ मुखोपाध्याय, 1998), बनफूल: शतवर्षेर आलोय (सं.- पवित्र सरकार, 1999), बनफूल (ले.- प्रशान्त दासगुप्ता, 2000), बनफूल (ले.- विप्लव चक्रवर्ती, 2005).

__________________________________________________________
संदर्भ :-

1. संवदिया पत्रिका / बनफूल विशेषांक / जुलाई-सितम्बर 2013
2. कोसी शोध साहित्य संदर्भ कोश / सं. डॉ. देवेन्द्र कु. देवेश (परिचय खंड)
3. बनफूल की कहानियाँ / अनुवादक- श्री जयदीप शेखर
4. जन्मभूमि क्षेत्र के होने के नाते स्वयं द्वारा अनेक तथ्यों की खोज।

डॉ. सदानंद पॉल

एम.ए. (त्रय), नेट उत्तीर्ण (यूजीसी), जे.आर.एफ. (संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार), विद्यावाचस्पति (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ, भागलपुर), अमेरिकन मैथमेटिकल सोसाइटी के प्रशंसित पत्र प्राप्तकर्त्ता. गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स होल्डर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड्स होल्डर, इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, RHR-UK, तेलुगु बुक ऑफ रिकॉर्ड्स, बिहार बुक ऑफ रिकॉर्ड्स इत्यादि में वर्ल्ड/नेशनल 300+ रिकॉर्ड्स दर्ज. राष्ट्रपति के प्रसंगश: 'नेशनल अवार्ड' प्राप्तकर्त्ता. पुस्तक- गणित डायरी, पूर्वांचल की लोकगाथा गोपीचंद, लव इन डार्विन सहित 12,000+ रचनाएँ और संपादक के नाम पत्र प्रकाशित. गणित पहेली- सदानंदकु सुडोकु, अटकू, KP10, अभाज्य संख्याओं के सटीक सूत्र इत्यादि के अन्वेषक, भारत के सबसे युवा समाचार पत्र संपादक. 500+ सरकारी स्तर की परीक्षाओं में अर्हताधारक, पद्म अवार्ड के लिए सर्वाधिक बार नामांकित. कई जनजागरूकता मुहिम में भागीदारी.