ग़ज़ल
बहुत छोटा सा मसला है मगर क्यों हल नहीं होता
निगाहों से मेरी चेहरा तेरा ओझल नहीं होता
दीवाने तो मिलेंगे बहुत तुमको पर समझ लेना
हरेक लकड़ी का टुकड़ा जानेमन संदल नहीं होता
भरी होकर भी बिल्कुल ही मुझे वीरान लगती है
जिस महफिल में तू मेरे सनम शामिल नहीं होता
इश्क की बस यही आदत हमें अच्छी नहीं लगती
हद से ज्यादा होता है या फिर बिल्कुल नहीं होता
कल मिलने के वादे पे तेरे ज़िंदा हूँ मैं कब से
सदियां बीत गईं लेकिन तुम्हारा कल नहीं होता
बा-वफा मर्द भी मिलता नहीं इस दौर-ए-दुनिया में
हया का औरतों के सर पे भी आँचल नहीं होता
— भरत मल्होत्रा