ग़ज़ल
जनजागरण हुआ, ये’ समय कामयाब का
अब देर सिर्फ एक नया इन्कलाब का |
अन्याय का विरोध करे चुप न अब रहे
आज़ाद देश, डर नहीं’ कोई नबाब का |
अब अन्धकार छट गया’ आकाश सुर्ख है
कुछ और इन्तिजार, नया आफताब का |
वो चाहती थी’ एक बहाना करे कभी
मंसा मिजाज़ सिर्फ उठाना नकाब का |
ये इश्क है शराब जवानी तो’ आग है
जलते पतंग, दोष नहीं है शबाब का |
कुछ देर भूल जाते’ सभी दुःख दर्द को
है मयपरस्त, दोष कहाँ है शराब का |
आमाल से तमाम तरह पूण्य ही मिले
इंसान को मिला कभी कुछ फल सवाब का ?
कालीपद ‘प्रसाद’