कामताप्रसाद गुरुआई हिंदी से बाहर आइये !
हिंदी के प्रचार-प्रसार में ‘चंद्रकांता’ उपन्यास सहित वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक आदि के उपन्यासों ने भी श्रमसाध्य सेवा की है और अब भी कर रही है, तो वहीं ‘मैला आँचल’ और ‘मधुशाला’ को अहिन्दीभाषियों ने पढ़ा भी है ! हर पुष्पों की सुरभि हमें चाहिए, केवल प्रेमचन्द ही क्यों ? हिंदी भाषा में संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू इत्यादि के शब्द हैं, जो चाहकर भी हिंदी से विलग नहीं हो सकते!
डॉ. नामवर सिंह जैसे ओझाओं ने हिंदी को इस भांति से क्लिष्ट बना दिये हैं कि अब हिंदी में रामचंद्र शुक्लाई – साहित्यकार बनने से रहे, ऐसा अब बन भी नहीं रहे हैं ! अखबारी हिंदी कितनी सरल और शिष्ट है । हिंदी को लिंग, वचनों ने तो और भी बेड़ागर्क कर रखी है । हिंदी केे अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार के लिए उनके लेखन में द्विलिंगी-व्यवहार आवश्यक है।
डॉ. देवेंद्र कुमार देवेश के प्रसंगश: प्रो. मैनेजर पांडेय ने स्पष्ट कहा है, “खड़ी बोली हिंदी को स्थापित करने में बिहार के अयोध्या प्रसाद खत्री का जो योगदान है, वह किसी शुक्ल, दास या दासानुदास का नहीं।”
इसके साथ ही मैं तो यह जानता हूँ, हिंदी के प्रसार में जितने बनियों और शूद्रों ने अवदान दिए हैं, सवर्णों ने कतई नहीं! सवर्णों ने तो हिंदी को गुरुआई ‘व्याकरण’ से बाँधे रखा, जिसतरह ‘खड़ी बोली’ का आना ‘संस्कृत’ से मुक्ति थी, उसी भाँति इसे (खड़ी बोली को) सवर्णी-हिंदी से मुक्ति चाहिए!