कविता

व्यंग्य : कवि बनाम कूड़ा-करकट

कल एक कवि मित्र को फोन किया
उसने ढँग से रिस्पांस ही नहीं दिया
मैंने पूछा-
क्या झगड़ा हो गया है किसी से
वो बोला-हाँ, पत्नी से
मैंने समझाया-अरे यार
दुनिया में कौन सा घर है
जहाँ न कोई आपसी खटपट हो
वो बोला-पत्नी ने कहा है
तुम कवि नहीं हो
कूड़ा-करकट हो
तू क्या समझता है
यह साधारण खटपट हुई है
अरे यार, मेरी आत्मा आहत हुई है
मैंने पूछा-तो क्या
भाभी से पंगा लेना है
वो बोला-हाँ
और जवाब भी कविता में ही देना है
बस यही टेंशन भारी है
न गीत बन पा रहा है
न ग़ज़ल बन पा रही है
मैंने कहा-टेंशन छोड़
एक दोहा कर रहा हूँ तेरे हवाले
इसी से काम चला ले-
जो कवि को कूड़ा कहे
उस पर क्या दूँ ध्यान
सबको कूड़ा मानता
केवल कूड़ेदान।

— डाॅ. कमलेश द्विवेदी
मो.9140282859