मरहम लिए बैठा रहा…
मरहम लिए बैठा रहा संग दाग पर देता रहा।
धुँआ था नापसन्द, आग शब सहर देता रहा।।
हर ओर खुशबुओं से भीगी बातें तर देता रहा।
ज़हर बुझे कुछ तीर पर अक्सर इधर देता रहा।।
पहले किया खाली उसे फिर छेद कर डाले कई।
थामा बड़े फिर प्यार से धुन और अधर देता रहा।।
उसका बड़प्पन आंकने को कोई पैमाना कहाँ?
दिल में गजब के फासले बिस्तर मगर देता रहा।।
धूप की डिबिया छुपा दी आसमानी रंग भी।
तिनका तिनका हिस्से मेरे, साँझ भर देता रहा।।
चार दीवारी में थी हर चीज़ मयस्सर ‘लहर’।
छोड़ के जाने का बेज़ा एक डर देता रहा।।