युगपुरुष वीर सावरकर
युगपुरुष वीर विनायक दामोदर सावरकर एक हिंदुत्ववादी राजनीतिक चिंतक और स्वतंत्रता सेनानी रहे। अपने स्वतंत्र विचारों को अभिव्यक्त करने में उन्होंने कभी किसी प्रकार का संकोच नहीं किया। लंदन से उच्च शिक्षित होने के बाद भी भारत के स्वाधीनता की चिंगारी उनके अवचेतन मन में धधकती रही। इसी कारणवश क्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी अभिरुचि रहे ब्रिटेन में ही क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न पाए जाने के कारण वह बंदी बनाकर भारत लाए गए। मार्ग में जहाज से समुद्र में कूदकर अपनी अदम्य इच्छाशक्ति व उत्कट देश प्रेम का परिचय दिया। उस समय भारत में कठोरतम कारावास के रूप में विख्यात “काले पानी” की नरकीय यंत्रणा भी उन्हें अपने लक्ष्य से विचलित नहीं कर सकी। भारतवर्ष के ऐसे प्रतिमान व देशभक्त आदित्य को इतिहास से विलग रखा गया, क्योंकि वीर सावरकर हिंदुत्व के प्रबल समर्थक रहे एवं स्वतंत्रता के बाद भारत पर शासन करने वाले लोगों में वीर सावरकर व हिंदुत्व के प्रति सम्मान का भाव नहीं था।
बचपन से ही यह चतुर बालक अपने सहपाठियों के साथ युद्ध रण कौशल शारीरिक परिश्रम वाले खेल खेला करता था, सब का स्नेही प्रिय होने के कारण इन सब का स्नेह प्राप्त हुआ। प्यार से बचपन में इन्हें सभी तात्या कहकर बुलाते थे। स्कूली जीवन में तात्या मित्रों की टोली बनाकर महाराणा प्रताप व शिवाजी के देशप्रेम व शौर्य की चर्चा किया करता। स्कूल की शिक्षा समाप्त होने के बाद कॉलेज जीवन में भी तात्या ने यह क्रम जारी रखा। पुणे में प्लेग का भयंकर प्रकोप हुआ प्लेग को रोकने के नाम पर अंग्रेज अधिकारी भारतीय घरों में घुसकर दुर्व्यवहार करते थे मि रैंड नामक अंग्रेज अधिकारी के दुर्व्यवहार से समस्त पूना वासी क्षुब्ध थे, इसी वर्ष 22 जून को महारानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक की हीरक जयंती मनाई जा रही थी पुणे में भी उत्सव हुआ, देश की दुर्दशा प्लेग के प्रकोप में भी इस प्रकार उत्सव मनाया जाना चाफेकर बंधुओं को सहन नहीं हुआ। उन्होंने मि रैंड और एस्टर्य की हत्या कर दी, अंग्रेज अधिकारियों की हत्या का आरोप लोकमान्य तिलक पर अंग्रेजों ने लगाया और उन्हें बंदी बना लिया। इसी प्लेग के कारण तात्या ने अपने पिता दामोदर पंत को खो दिया था , अब परिवार का दायित्व बड़े भाई गणेश सावरकर पर आ गया।
पुणे के ही डेक्कन कॉलेज में सावरकर का शिक्षा जीवन आगे बढ़ा, वे यहां पर भी विद्यार्थियों की एक टोली बनाकर देशभक्ति व स्वतंत्रता के विचार को सभी तक पहुंचाने के लिए सभा करते थे, इतना ही नहीं अन्य कॉलेज के विद्यार्थियों की भी सभाएं लेकर टोली बनाना और क्रांति के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित करने का काम सावरकर ने अपने विद्यार्थी जीवन में भी अनवरत जारी रखा । राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत कविताएं लिखना विनायक की रूचि थी महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह के संबंध में इन्होंने कई वीर रस की कविताओं की रचना की। सन 1894 में चाफेकर बंधुओं ने हिंदू धर्म संरक्षणी सभा की स्थापना की, पूर्व के मि रैंड हत्याकांड में चाफेकर बंधुओं को फांसी दे दी गई। इस घटना से अंग्रेजों के विरुद्ध पूरे देश में तीव्र रोष उत्पन्न हुआ। इसी घटना ने विनायक सावरकर दामोदर को अंग्रेजी शासन का प्रबल शत्रु बना दिया, उन्होंने अपनी कुलदेवी के समक्ष मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष करते रहने की भीष्म प्रतिज्ञा थी।
1905 में जिस समय सावरकर बीए अंतिम वर्ष के परीक्षा की तैयारी कर रहे थे उसी समय उन्होंने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का निर्णय लिया विद्यार्थियों को एकत्र कर विदेशी वस्त्रों की होली जलाई जाती थी इस निर्णय पर नरम विचारों वाले कांग्रेसी नेताओं का यह मत था कि अंग्रेजों का इस प्रकार विरोध का परिणाम अच्छा नहीं होगा इससे सरकार शांति प्रिय लोगों पर और अधिक अत्याचार करेगी। परंतु विनायक सावरकर ने अपने विरोध की तीव्रता को कभी कम नहीं होने दिया। विदेशी वस्त्रों की होली भारतीयों में स्वदेशी के जागरण और विदेशी गुलामी के प्रतिकार की भावना को प्रबल करना था, इसी लक्ष्य को लेकर विनायक सावरकर ने एक गुप्त सभा की स्थापना की जिसका नाम अभिनव भारत रखा गया। इस संस्था का उद्देश्य युवाओं को सशस्त्र क्रांति के लिए तैयार करना था इसकी सदस्यता प्राप्त करने के लिए युवकों को एक शपथ लेना पढ़ती थी कि ” छत्रपति शिवाजी के नाम पर अपने पावन धर्म के नाम पर तथा अपने प्रिय देश के नाम पर अपने पूर्वजों की शपथ लेते हुए मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि अपने राष्ट्र की पूर्ण स्वतंत्रता के लिए अंतिम सांस तक संघर्ष करता रहूंगा मैंने तो आलस्य करूंगा और ना अपने लक्ष्य से पीछे हट लूंगा मैं अभिनव भारत के नियमों का पूर्ण पालन करूंगा तथा संस्था के कार्यक्रमों को पूर्णतया गुप्त रखूंगा।” उक्त शपथ लेकर युवक छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानकर भारत की स्वतंत्रता के लिए सावरकर के साथ जुड़ने लगे थे।
1905 में सावरकर गुरु परमहंस के संपर्क में आए परमहंस संपूर्ण भारत का भ्रमण कर चुके थे उन्हें देश के हर कोने में अंग्रेजों के अत्याचार व भारतीयों के प्रतिकार का अच्छा अनुभव था, जगह-जगह व्याख्यान देकर वह भी सरकार के विरुद्ध सक्षम क्रांति का प्रचार करते थे जनता को सरकार से डरने की कोई आवश्यकता नहीं यह विचार वे अपनी सभी सभाओं में रखते थे आखिर कुछ हजार अंग्रेज हम करोड़ो भारतीयों पर कैसे शासन कर सकते हैं ? यह प्रश्न वह हर भारतीय से पूछते थे।
सावरकर भगवान राम को मानव मात्र का आदर्श मानते थे इंग्लैंड में भी राम जी के जन्मोत्सव के माध्यम से भारतीय युवकों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जागृत किया जाता। लंदन में ही अध्ययन के समय मदन लाल धींगरा सावरकर के संपर्क में आए, उन्होंने मातृभूमि की सेवा के लिए संकल्पित होने का विचार सावरकर के समक्ष रखा इसी विचार की तीव्रता को जानने के लिए सावरकर ने मदन लाल के हाथ में छुरी गड़ा दी हाथ से आरपार होने पर भी धींगरा ने उप तकनीकी उनके इस संकल्प को देखकर सावरकर ने उन्हें अपने साथ सम्मिलित की अंग्रेजों के भारतीयों पर होते अत्याचार के प्रति मदनलाल के मन में तीव्र आक्रोश पनप रहा था सावरकर का शिष्य बनने के पश्चात मदन लाल धींगरा कर्जन वाइली के पास गए तथा इंडिया ऑफिस के सदस्य बन गए मदन लाल धींगरा के पिता के कर्जन वाइली से अच्छे संबंध थे, इस कारण धींगरा को कर्जन वाइली अधिक प्राथमिकता देते। किंतु धींगरा के मन में स्वतंत्रता के विद्रोह का जो ज्वार जन्म ले रहा था उसमें ऐसे सैकड़ों कर्जन वाइली तिनके की भांति बह जाने वाले थे। यही हुआ, 1 जुलाई 1909 को एमपीरियल इंस्टीट्यूट के जहांगीर हॉल में धींगरा ने कर्जन वाइली को गोली मार दी अंग्रेजों ने धींगरा को बंदी बना लिया। कर्जन वाइली कि इस हत्या के कारण चारों ओर खलबली मच गई भारत में भी धींगरा के चर्चे क्रांतिकारी युवाओं में होने लगे थे।
धींगरा के पिता ने इस घटना से क्षुब्ध होकर उनसे संबंध विच्छेद कर लिया था, भारत में इस हत्या के विरोध में सभाएं हुई, लंदन में भी एक सभा हुई जिसमें सावरकर विद्यमान थे, जैसे ही धींगरा के कृत्य की निंदा के विषय में सभा अध्यक्ष निंदा प्रस्ताव को पास करने की घोषणा करने के लिए उठे सावरकर ने गरजते हुए इस प्रस्ताव का विरोध किया और कहा कि धींगरा का मामला सभी न्यायालय में विचाराधीन है, यह प्रस्ताव इस कार्यवाही को प्रभावित कर सकता है तथा न्यायालय का निर्णय आने से पहले ही धींगरा को दोषी बना सकता है। सावरकर के इस अप्रत्याशित विरोध से सभा में बैठे अंग्रेज अधिकारी तिलमिला उठे थे। एक अंग्रेज अधिकारी ने तो इन्हें घुसा मार दिया, इससे आक्रोशित भारतीय युवक ने भी उस अंग्रेज अधिकारी की डंडे से पिटाई कर दी। सावरकर के विरोध के कारण निंदा प्रस्ताव पारित नहीं हो सका, सावरकर तुरंत गिरफ्तार कर लिया गया। ढींगरा के समर्थन और इस प्रकार के विरोध के कारण सावरकर के पीछे इंग्लैंड की पुलिस हाथ धो कर पड़ गई थी, उन पर अनेक अभियोग लगाए गए। सावरकर के मित्रों ने उनसे पेरिस चले जाने का आग्रह किया, कुछ समय पेरिस में रहने के पश्चात सावरकर वापस इंग्लैंड आ गए। जहां उन्हें अंग्रेजों ने बंदी बना लिया सभी अभियोग में सावरकर न्यायालय में कार्यवाही आरंभ होना थी, अंग्रेज सरकार ने लंदन में इस कार्यवाही को ना करने का निर्णय लिया क्योंकि इससे सावरकर के विचार और कीर्ति सारे विश्व में फैलने का डर था। उन्होंने भारत में सावरकर पर दंडात्मक कार्यवाही चलाने का निर्णय लिया। 1 जुलाई 1910 को मोरिया नामक जलयान में सावरकर को इंग्लैंड से भारत भेजा गया, योजना अनुसार सावरकर यान से भागने में सफल हुए परंतु श्याम जी वर्मा क्रांतिकारियों से समय पर न पहुंचने के कारण फ्रांसीसी पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। पीछे से आ रही इंग्लैंड पुलिस ने फ्रांसीसी अधिकारियों से बात की अंतरराष्ट्रीय नियमों के तहत सावरकर फ्रांस के अपराधी नहीं थे एवं फ्रांसीसी पुलिस उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकती थी। किंतु सारे अंतरराष्ट्रीय नियमों को ताक पर रखकर फ्रांसीसी पुलिस ने सावरकर को इंग्लैंड पुलिस को सुपुर्द कर दिया इस घटनाक्रम के कारण फ्रांस पुलिस की निंदा फ्रांस के सारे समाचार पत्रों में प्रमुखता से छपी, इस घटनाक्रम से सावरकर अंतर्राष्ट्रीय ख्याति व्याप्त कर चुके थे।
अंग्रेज सरकार ने सावरकर को अंडमान निकोबार की सेल्युलर जेल भेजने का निर्णय लिया। कालापानी की सजा म्रत्यु से भी भयानक मानी जाती थी, भारत के दुर्दांत क्रांतिकारियों को भयंकर यातनाएँ और दण्ड देने के लिए अंग्रेजो ने यहां कई विभत्स तरीके बनाये हुए थे। सावरकर को भी जेल में भीषण यातनाओं का सामना करना पड़ा। देश की स्वतंत्रता और स्वाभिमान की स्थापना के लिए सावरकर का बाहर रहना आवश्यक था, इसी हेतु 2 बार अंडमान निकोबार से भागने पर भी अंग्रेज सरकार द्वारा इन्हें फिर गिरफ्त में ले लिया गया।
कोलकाता के जेल में कई वर्ष रखने के बाद इन्हें रत्नागिरी भेज दिया गया, उसी समय की बात थी मुसलमानों के आतंक से परेशान होकर नासिक के महार बन्धु आगाखानी मुसलमान बनना चाहते थे। सावरकर के प्रयासों से मुसलमानों का यह षड्यंत्र सफल ना हो सका। रत्नागिरी से मुक्त होने के पश्चात अनेक महान विभूतियों ने सावरकर से भेंट की, सुभाष चंद्र बोस तथा अनेक वीर क्रांतिकारी समय-समय पर सावरकर से मिलने आते रहे। भारत के स्वतंत्रता के संबंध में सावरकर के विचारों व स्वराज के उनके संकल्प से सभी क्रांतिकारि उन्हें अपनी प्रेरणा मानते। सावरकर भारत के युवाओं के सशस्त्र सैनीकी करण के प्रबल समर्थक थे, इसी कारण वे चाहते थे कि अधिक से अधिक भारतीय युवा अंग्रेजी सेना में सम्मिलित होकर, सैन्य प्रशिक्षण ले। ताकि सशस्त्र विद्रोह के लिए हमारे पास एक सक्षम सेना हो। कांग्रेस पार्टी अंग्रेजों से समन्वय के आधार पर भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य कर रही थी। मुस्लिम लीग अपने निर्माण से ही भारत के द्विराष्ट्रीय सिद्धांत को लेकर आगे बढ़ी, अली भाइयों ने पाकिस्तान की मांग अंग्रेजों के समक्ष रखी, जिसे बाद में मोहम्मद अली जिन्ना ने आगे बढाया।
कांग्रेस के कई देशभक्त नेता मुस्लिम लीग की इस मांग से के समर्थन में नहीं थे, 1930 में रावी नदी के तट पर कांग्रेस के अधिवेशन में सभी नेताओं ने पूर्ण स्वराज की मांग को दोहराया था। सुभाषचन्द्र बोस जैसे कई व्यक्तित्व कांग्रेस में बढ़ती व्यक्ति निष्ठा और कम होते स्वराज के प्रभाव से इस पार्टी से विलग हो चुके थे। सन 1940 में भी महात्मा गांधी ने भारत का विभाजन मेरी लाश पर होगा यह वक्तव्य दिया। सावरकर भारत के विभाजन के विचार के प्रखर विरोधी रहे , किंतु कांग्रेस के कई नेताओं का मत यह बन चुका था कि मुसलमानों के बिना हम भारत की स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकते। इसी विचार के कारण कई मौकों पर कांग्रेस ने मुसलमानों से समझौता किया। खिलाफत आंदोलन भी इसी समझौते का एक पहलू था जिसमें मुसलमानों के खलीफा को तुर्की सरकार द्वारा हटाने के विरोध में भारत के मुसलमानों के समर्थन के लिए कांग्रेस ने खिलाफत आंदोलन का समर्थन किया जबकि इस आंदोलन का कोई भी संबंध भारत या भारत की स्वतंत्रता से नहीं था। परंतु मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण आगे चलकर कांग्रेस इस दलदल में फंसती चली गई। सावरकर ने अपनी सभी सभाओं में भारत के विभाजन के षड्यंत्र का जमकर विरोध किया और जनता से पूर्ण स्वराज के लिए लड़ने के लिए प्रेरित करते रहें। दुर्भाग्य से भारत का विभाजन अंग्रेजों द्वारा निश्चित कर दिया गया, विभाजन के समय जो नियम तय हुए भारत तो उन्हीं नियमों पर चला किन्तु पाकिस्तान में हिंदुओं का कत्लेआम शुरू हो चुका था। सावरकर ने प्रखर रूप से इन अत्याचारों व हत्याओं का विरोध किया। देश विभाजन के बाद पाकिस्तान और बांग्लादेश में 20 लाख से ज्यादा हिंदू और सिख मारे गए, 4000 करोड़ से अधिक संपत्ति हिंदुओं से लूटी गई। लाखों की संख्या में शरणार्थी पाकिस्तान व बांग्लादेश से दिल्ली पहुंचे। इस दुर्भाग्य का पटाक्षेप हुआ भी नहीं था की पाकिस्तानी कबायली गुंडों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया, इस आक्रमण के विरोध में भारत सरकार ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि यदि उग्रवादियों को वापस नहीं बुलाया गया तो भारत द्वारा पाकिस्तान को दिए जाने वाले 55 करोड़ रु नहीं दिए जाएंगे। इस चेतावनी के विरोध में महात्मा गांधी आमरण अनशन पर बैठ गए। गांधी जी की इस पक्षपात पूर्ण नीति से स्वराष्ट्र व स्वराज पर विश्वास करने वाले कुछ युवक आक्रोशित थे, पाकिस्तान से आए शरणार्थियों की व्यथा, इन दिनों हिंदुओं व सिखों के भीषण नरसंहार से क्षुब्ध एक युवक नाथूराम गोडसे ने दिल्ली की प्रार्थना सभा में गांधी जी को गोली मार दी। कांग्रेसी व कम्युनिस्ट लोगों ने गांधी जी की हत्या के दूसरे ही दिन सावरकर के घर पर हमला कर दिया सावरकर इस समय अस्वस्थ चल रहे थे, किसी भी सबूत गवाह या न्यायपालिका की कार्यवाही के बिना ही कई लोगों ने सावरकर उनके हित चिंतको पर आक्रमण आरंभ कर दिए। कई लोगों को तो मार दिया गया। इसके बाद गांधी हत्याकांड में गिरफ्तारी का सिलसिला चला आर एस एस तथा हिंदू महासभा के 25000 लोगों को गिरफ्तार किया गया वीर सावरकर पर यह आरोप था कि नाथूराम गोडसे ने उनसे प्रेरणा ली थी जिसके कारण गांधी की हत्या हुई। इसी कारण सावरकर को भी गिरफ्तार किया गया। जनता यह जानती थी इस हत्याकांड में सावरकर को अकारण फंसाया जा रहा है अतः उनका मुकदमा लड़ने के लिए धन एकत्र किया गया महाराष्ट्र पंजाब बंगाल गुजरात राजस्थान बिहार से अनेक वकील मुकदमा लड़ने के लिए आए। सावरकर ने भी अपना बयान स्पष्ट शब्दों में दीया। पुलिस ने कुछ झूठे गवाह तैयार किए थे पुलिस की धूर्तता की पोल जज के सामने खुल गई, जब झूठा गवाह सावरकर को पहचान भी नहीं सका। यह मुकदमा लगभग 9 माह तक चला अंत में सावरकर को निरपराध घोषित करते हुए मुक्त कर दिया गया। न्यायालय से मुक्त होते ही सावरकर पुनः अपने लक्ष्य के लिए क्रियाशील हो गए यह समय था जब संघ पर लगा प्रतिबंध हटा दिया गया था। सावरकर इस निर्णय से बहुत प्रसन्न थे उन्होंने तत्कालीन सरसंघचालक श्री गोलवलकर जी को संदेश लिखकर अपनी प्रसन्नता जताई । इस समय पूर्वी पाकिस्तान के नोआ खली ढाका नारायणगंज आदि स्थान में हिंदुओं का भयंकर नरसंहार आरंभ हो गया था सावरकर इससे अत्यंत चिंतित थे, सावरकर के कुछ भाषणों की शिकायत लियाकत अली ने जवाहरलाल नेहरू से की थी अल्पसंख्यकों की सुरक्षा को देखकर जवाहर ने लियाकत अली का यह आग्रह मान लिया और सावरकर को एक बार फिर स्वतंत्र भारत में जेल भेज दिया गया। 1962 में चीनी आक्रमण तथा 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण पर भी सावरकर के ह्रदय में बहुत पीड़ा रही। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण नीति व पाकिस्तान के प्रति असावधानी के कारण यह दुष्परिणाम हुआ था। हिंदी चीनी भाई भाई का नारा जवाहरलाल नेहरू की सबसे बड़ी भूल रही, सावरकर ने जेल में रहने के पश्चात भी सरकार को इस षडयंत्र के लिए आगाह किया था, की चीन विश्वसनीय मित्र कभी नहीं बन सकता, इसीलिए चीनी सीमा पर भारतीय सेना की अतिरिक्त टुकड़ियां सदैव नियुक्त रहनी चाहिए। किन्तु चीनी षड्यंत्र में फस कर जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय सीमा से सैनिकों को वापस बुला लिया जिसके कारण 43 हजार वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र भारत को 1962 के युद्ध में खोना पड़ा ,इस क्षेत्र पर चीन ने कब्जा कर लिया। इतना ही नहीं हजारों सैनिक बलिदान हुए। पाकिस्तानी आक्रमण के समय भी पाकिस्तान के प्रति भारत सरकार का जागृत ना रहना दुष्कर सिद्ध हुआ भारतीय सेना के पराक्रम से हमने यह युद्ध तो जीत लिया किन्तु एक कुशल नेतृत्व की कमी भारत को सदैव खलती रही । हिंदू, हिंदू राष्ट्र व हिंदुत्व के लिए उत्कट, देशभक्ति विचार तथा आजीवन संघर्ष के कारण सावरकर हिंदू युवाओं के प्रेरक बने रहे, अनेक युवा क्रांतिकारी भी सावरकर की विचारधारा से प्रभावित होकर देश पर मर मिटने के लिए संकल्पित होते रहे, आज भी देश के युवाओं को सावरकर के अतुलनीय नेतृत्व, साहस, संकल्प और देशभक्ति से प्रेरणा लेना चाहिए।
— मंगलेश सोनी