व्यंग्य कविता : संपादक बनाम कवि
हमारे एक संपादक मित्र
अभी कुछ दिन पहले
कोरोना से हो गए थे अपवित्र..
एक अत्यावश्यक कार्य से,
लग गए थे लाइन में
तब से ही घर में हैं क्वारेंटाइन में।
एक बार जब हम हुए थे बीमार
याद है…साथ में लाये थे फूल
आज कैसे जाएँ हम भूल,
इस नाते सामाजिक व्यवहार तो चुकाना था
मुझे भी तो उनके घर जाना था।
हमने जाकर बजाई उनके द्वार की घंटी
गेट खोलने आया उनका छोटा बेटा बंटी
बोला अंकल नमस्ते,
पापा को बुला लाया हँसते- हँसते ।
घर के दरवाजे पर हमें रोका गया
कोरोना की आशंका से हमारे चरणों को
दो जग पानी से धोया गया
बेटा और मम्मी ने की दूसरी क्रिया आरम्भ
हाथ,पैर, पीठ, पेट बालों पर
सेनेटाइजर छिड़कना किया प्रारम्भ
तदुपरान्त घर में हुआ प्रवेश
आने ही वाला था हमें आवेश
पर मन ही मन आगयी हँसी
बोले अब अंदर आइये कवि मित्र शशि
हमने कहा बताओ मित्र कैसे हो
घर मे डले डले हो गये तुम भैंसे हो
औऱ बताओ अख़बार छपना क्यों बन्द है?
आजकल रोजगार का क्या प्रबन्ध है?
औपचारिकता निभाने दो कप चाय आई
हमने उचककर अपनी उठाई
पीते पीते चाय, बोले मित्र! आजकल
बन्द हो गया है प्राइवेट विज्ञापनों का आना
बताओ कैसे होगा सम्भव पेपर का छप पाना?
सोच रहे हैं कुछ दिन बाद आरम्भ करेंगे
पाठको से चंदा माँगकर प्रारम्भ करेंगे
आप जैसे कवियों की छापेंगे कविता
फिर बहने लगेगी पैसे की सरिता
आजकल कवि खूब छप रहे हैं
एक रुपये की रद्दी में खूब खप रहे हैं…
हमने कहा मित्र क्या कह रहे हो
घर बैठे कवि का अपमान कर रहे हो।
बोले सोलह आने सच कह रहा हूँ
जिनका एक बटे चार है आईक्यू
वो दिन भर लिख रहे हैं हाईकू..
जिन्हें आता नहीं काव्य का प्रबंध
वे लिख रहे हैं घनाक्षरी छंद
जिन्हें नहीं पता, क्या है तार सप्तक?
शौचालय बैठे लिख देते हैं पाँच मुक्तक
जैसे खरबूजा को देख खरबूजा रंग बदलता है
बैसे हमारा कवि पाठक अपना ढंग बदलता है
एक अख़बार की कविता करके चोरी
दूसरे में भेजकर लिखता है,स्वरचित मेरी
लॉक डाउन में कवि ऐसे उग रहे हैं
मानो बरसात की खरपतवार
सच कहता हूं माफ़ करना यार..
जो करते थे रात दिन हाहाकार
छप रहे हैं बनकर कथाकार
कबाड़े की दुकान के प्रोपराइटर
बन गए बे सब राइटर….
गूगल से कॉपी कर लेते हैं
हमें बाई मेल भेज देते हैं
सुनते सुनते हमें आया क्रोध
हमारी ही जाति का हो रहा था विरोध
हमने कहा मित्र,
तुम कवि-लेखकों का अपमान करोगे
कमाकमा कर पैसा अपना पेट भरोगे
बोले!! एक बात कहूँ बुरा तो नहीं मानोगे??
जिन्होंने कभी नहीं पढ़ी तुलसी की मानस
रसखान -सूर-मीरा के पद, कबीर की साखी
बूढ़ी काकी,ईदगाह, प्रेमचन्द की कहानी,
नागमती -उर्मिला का विरह,राधा की वेदना
वह कैसे जानेगा कविता की संवेदना???
इसलिए हे मित्र !!!
आज का कवि सिर्फ नाम के लिए
चाहता है कविताएँ छपाना
हम छापते हैं बड़ती मंहगाई में
बस रोटी के लिए कमाना…!!!!
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डॉ. शशिवल्लभ शर्मा
अम्बाह, मुरैना (मध्यप्रदेश)