आवाजों की दुनिया
झरना झरता कल-कल-कल-कल,
तोपें करतीं गड़-गड़-गड़-गड़,
फोन फुदकता टन-टन-टन-टन,
जंजीरों की होती खन-खन.
सांय-सांय है वायु करती,
धम-धम कर बंदूक धमकती,
टिक-टिक करती घड़ी हमारी,
पौं-पौं-पौं-पौं मोटर करती.
1978 में लिखी पुस्तक शिशु गीत-संग्रह से
हमने शिशु गीत ”आवाजों की दुनिया” में घड़ी में दस बजकर दस निनट का समय दिखाया है.
घड़ीसाज अक्सर सारी घड़ियों पर दस बजकर दस निनट का समय क्यों रखते हैं?
वक्त की फितरत है, बदलना. अच्छे से बुरे वक्त में और बुरे से अच्छे में. वक्त अपनी खासियतों के साथ ही बदलता है, यानी अच्छा हो तो कब गुजर गया पता ही नहीं चलता. इसी तरह बुरा हो तो लाख दिलासे मिलते रहें कि यह वक्त भी गुजर जाएगा पर लगता है कि काटे नहीं कट रहा. लेकिन एक ठिया है जहां वक्त अक्सर ठहरा हुआ मिलता है और वक्त का वह ठिया खुद घड़ियां हैं. कैसी मजेदार सी बात है कि जिस घड़ी के घूमने पर दुनिया चक्कर लगाती है उसी घड़ी के ज्यादातर विज्ञापनों में उसके कांटे एक ही वक्त यानी 10 बजकर 10 मिनट पर अटके रहते हैं.
मान्यता है कि 10 बजकर 10 मिनट बजाने वाले पैटर्न में कांटों की स्थिति मुस्कुराने जैसी होती है. कुछ लोग इसमें जीत यानी विक्टरी का ‘वी’ भी देखते हैं. ये कुछ ऐसे तर्क थे जो बड़े जल्दी ही तमाम घड़ी निर्माताओं ने मान लिए और फिर तकरीबन सभी ने विज्ञापनों या शोरूम में रुकी हुई घड़ियों पर 10:10 बजे के वक्त को ही अपना लिया.