इंसान की माया
उस युग में भगवान ने ,
माया का जाल बनाया था ।
नारद जी को उसमें ,
गोल गोल घूमाया था ।
इस युग में भी बहुत से भगवान ,
माया जाल फैला रहे हैं !
स्वयं बनकर भगवान,
मन के नारद को भरमा रहे हैं!
सुंदर सुंदर फूल है पहाड़,
झरने हरियाली है ।
पर सच में तो ,बंजर है धरती ,
नहीं कहीं हरियाली है!
रंगों से भरा जीवन दिखता है ,
पर असल में तो सब बेरंग है!
आजकल यही ,
इंसानों के जीने का ढंग है !
मां बाप पति पत्नी बेटा बेटी आपस में,
कितने खुश नजर आ रहे!
पर यह सब माया है!
बरसों से मीठे बोल बोला नहीं जोड़ा!
बरसों से बेटा घर नहीं आया है!
क्या चेहरे ! परियों जैसे,
खुशियों से दमक रहे !
अकेले में वही ,असल में ,
अंधेरों में सिसक रहे!
सोशल मीडिया क्या है ?
वही भगवान की माया है !
माया जिसे इंसान ने बनाया है !
मन रूपी नारद को खूब भरमाया है!
बुना है जाल इक इस इंसान ने,
और खुद को इसमें फंसा रहा।
अपनी जानदार भावनाओं को,
बेजान से यंत्र में बरसा रहा!
सत्य से दूर मिथ्या जगत में जीता है!
अमृत समझ कर मीठा जहर पीता है !
दिखावे के संसार में होकर मगन ,
खुद को बरगला रहा !
इंसान सत्य से कितना दूर हुआ जा रहा!!
यह जिद अच्छा दिखने की,
कहां ले आई है!
अच्छा होना नहीं चाहता कोई ,
बस अच्छा दिखने की होड़ लगाई है!
— सुनीता द्विवेदी