कथा साहित्यकहानी

मुझे कंधा कौन देगा

एक सुखी परिवार की परिभाषा जैसी होती है, वैसा ही था सपना और अशोक का परिवार। सुख-सुविधा और धन-दौलत की कोई कमी नहीं थी। दो बच्चे थे राहुल और मेहुल, होनहार और अपने माता-पिता की बेहद इज़्ज़त करने वाले। अशोक और सपना ने दोनों बच्चों को पढ़ाई के तुरंत बाद ही उज्जवल भविष्य के लिए अमेरिका भेज दिया था। दोनों बेटे बड़ी-बड़ी आईटी कंपनी में कार्यरत थे।

अशोक और सपना ने अपने दोनों ही बच्चों का विवाह भी सही वक्त पर कर दिया था। दोनों बेटे अपने अपने परिवार के साथ रह रहे थे। हर वर्ष वह अपने माता-पिता से मिलने अवश्य ही आते थे। सभी अपनी अपनी जगह ख़ुशी से अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे।

अशोक की उम्र अब साठ वर्ष की हो चुकी थी और वह सेवानिवृत्त हो गए थे। उनके बंगले के साथ ही उनका बहुत ही बड़ा बगीचा था। जिसमें दो कमरे का एक मकान भी था। उस मकान में उनकी काम वाली गंगू बाई अपने दो बेटों राज और भोला के साथ पिछले कई वर्षों से रह रही थी। उसके दोनों बेटे भी जवान थे, मेहनत मजदूरी करते और प्यार से एक ही छत के नीचे रहते थे।

सेवा निवृत्त होने के बाद अशोक, सपना से अक्सर कहते, “सपना पूरी उम्र मेहनत कर ली, सभी जवाबदारी भी पूरी कर दी। चलो अब ख़ुद के लिए जीते हैं, घूमेंगे फिरेंगे और कुछ दिन बच्चों के पास जाकर चैन से रहेंगे।”

सपना भी ख़ुश होकर अशोक को कहती, “बिल्कुल अशोक अब तो जैसे मन करेगा हम वैसे जी सकते हैं। ”

दोनों की इस तरह की बातों को मानो किसी की नज़र ही लग गई।

अचानक ही संपूर्ण विश्व कोरोना महामारी की चपेट में आ गया। हर इंसान अपने-अपने घर में कैद होकर रह गया। इस बुरे वक़्त ने अशोक और सपना के द्वार पर भी दस्तक दे दी। अशोक की तबियत बिगड़ने लगी, अस्पताल जाने पर पता चला कि उनका कैंसर तीसरे चरण में पहुंच चुका है। उनके सारे सुनहरे सपने जो उन्होंने अभी-अभी देखे थे, सब टूट गए। दोनों बेटे भी यह समाचार सुनकर अत्यधिक चिंतित हो गए लेकिन हालात ऐसे थे कि कोई नहीं आ सकता था। अशोक की हालत दिन पर दिन बिगड़ने लगी।

दोनों बेटे आने के लिए तरसते रहे, हर रोज़ फोन करते, वीडियो से बात कर अपने पिता को देखते लेकिन वक़्त और हालात नें उन्हें मजबूर कर दिया था। उन्हें ऐसा लग रहा था कि सब कुछ पास होते हुए भी उनके पास कुछ नहीं है। अशोक का कोई भी रिश्तेदार चाह कर भी मदद नहीं कर पा रहा था।

ऐसे दुःख के समय गंगू बाई और उसके दोनों बेटे ही उनके काम आ रहे थे। अशोक के बचने की उम्मीद दिन पर दिन कम होती जा रही थी।

एक दिन अशोक ने अपनी पत्नी से कहा, ” सपना मैं जानता हूं, अब मैं ज्यादा दिन जीवित नहीं रह पाऊंगा। देखो ना सपना कैसा बुरा वक़्त आया है। मेरी मृत्यु होने पर मेरे ख़ुद के बेटे भी मुझे कंधा देने नहीं आ पाएंगे। मैं तो चला जाऊँगा, लेकिन यह दुःख वह भी कभी भूल नहीं पाएंगे, मुझे कंधा कौन देगा ?”

सपना अपने आंसुओं के सैलाब को रोक नहीं पा रही थी, अशोक की बातों का उसके पास कोई जवाब भी तो नहीं था, सांत्वना दे भी तो क्या दे।

गंगू बाई तब उन्हीं के कमरे में सफाई कर रही थी सारी बातें सुनकर वह बोल पड़ी, “साहब समय बहुत ख़राब है, दुःख भी होता है, मेरे बच्चे भी आपके घर में ही पल कर बड़े हुए हैं, मेरे बेटे आपके काम आएंगे साहब।”

आखिरकार वह घड़ी आ ही गई, जिसे कोई नहीं चाहता था। अब तक अशोक का बातचीत करना भी बंद हो चुका था। लेकिन उनका मस्तिष्क शायद काम कर रहा था। उनकी आंखों से अश्कों की बूंदें लगातार बह रही थीं, जो उनकी अंतिम सांसों के वक़्त भी उनके दर्द की गवाही दे रही थी। कुछ ही समय में उनकी आंखें हमेशा के लिए बंद हो गईं।

दोनों बेटों को भी सपना ने फोन करके बता दिया। किसी भी बेटे के लिए इससे बड़ा दुःख नहीं हो सकता कि वह अपने पिता के जीवन की अंतिम घड़ी में भी उनके पास नहीं है, यहां तक कि वह उन्हें कंधा देने, अग्नि देने भी नहीं आ सकते।

अंतिम यात्रा की अब पूरी तैयारी हो गई, कंधा देने के लिए भी घर में केवल चार ही लोग थे। सपना ख़ुद, गंगू बाई और उसके दोनों बेटे।

अशोक के पार्थिव शरीर को उठाने से पहले सपना अपने दोनों बेटों की तस्वीर ले आई। इतनी उम्र होने पर भी सपना के शरीर में जाने कैसे इतनी शक्ति आ गई कि उसने अपने कंधे पर पति के पार्थिव शरीर को उठाया दूसरी तरफ गंगू बाई जो लगभग सपना की उम्र की ही थी और पीछे राज और भोला। गंगू बाई और सपना के हाथों में सपना के बेटों की तस्वीरें थी, मानो सपना ने कंधा देने के लिए अपने बेटों को बुला लिया हो।

रास्ते में जिसने भी यह दृश्य देखा आंसुओं को रोक न पाया। कुछ बहुत ही संवेदनशील व्यक्ति भी शव यात्रा में शामिल हो गए और उन्होंने सपना तथा गंगू बाई के कंधे से पार्थिव शरीर को ले लिया और अपनी मानवता का परिचय दिया।

अशोक का अंतिम संस्कार तो हो गया लेकिन उनके इस दर्द को क्या कभी उनका परिवार भूल पाएगा ? यह केवल सपना और अशोक के परिवार की बात नहीं, आज ना जाने कितने पार्थिव शरीर ऐसे हैं, जिन्हें उनका अपना कोई कंधा देने के लिए उपस्थित नहीं। शायद यह इंसान के बढ़ते पापों का ही नतीजा है, दोष हो या ना हो सज़ा तो सभी को मिलना तय है।

इस कोरोना काल के समाप्त होने के पश्चात हम सभी को यह कोशिश करनी होगी कि पुरानी गलतियों को ना दोहराया जाए। यह जो भी विनाश हो रहा है, उसका कारण हम स्वयं ही तो हैं। कोरोना को विदा करने के साथ ही हमें अपनी बुराइयों को भी विदा करने के लिए दृढ़ संकल्प लेना होगा। कोरोना के विरुद्ध इस युद्ध में हमें जीतना ही होगा और पूरे विश्व को इस महा संकट से एक जुट होकर मुक्त कराना होगा।

— रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

रत्ना पांडे

रत्ना पांडे बड़ौदा गुजरात की रहने वाली हैं । इनकी रचनाओं में समाज का हर रूप देखने को मिलता है। समाज में हो रही घटनाओं का यह जीता जागता चित्रण करती हैं। "दर्पण -एक उड़ान कविता की" इनका पहला स्वरचित एकल काव्य संग्रह है। इसके अतिरिक्त बहुत से सांझा काव्य संग्रह जैसे "नवांकुर", "ख़्वाब के शज़र" , "नारी एक सोच" तथा "मंजुल" में भी इनका नाम जुड़ा है। देश के विभिन्न कोनों से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र और पत्रिकाओं में इनकी रचनाएं नियमित रूप से प्रकाशित होती रहती हैं। ईमेल आई डी: [email protected] फोन नंबर : 9227560264