लघुकथा

लघुकथा : समय का चक्र

बात जून सन् 1999 की है जब देश में कारगिल की जंग छिड़ी हुई थी। उस समय डाकिया रामखेलावन काका का गाँव में चिट्ठी लेकर आना गाँव वालों को भयभीत कर देता था। अनहोनी का अंदेशा गाँव वालों को पहले ही लग जाता था।ऐसा होना स्वाभाविक भी था।क्योंकि गाँव के अधिकतम युवा भारतीय सेना में जवान थे। वहीं दूसरी ओर पड़ोसी मुल्क से कारगिल की जंग भी चल रही थी।बुधवार के दिन खेतों की ऊंची मेड़ पर सरपट दौड़ती काका की सायकिल गाँव की पुरानी मंदिर वाली गली से होते हुए बड़े कुआँ के पास आकर रुकी।पानी भरने आयीं गाँव की महिलायें काका को देखते ही सिर ढंकने लगीं।काका ने एक चिट्ठी झोले से निकाल कर आवाज दी- अरी सुनती है राजकली! देख तो तेरी चिट्ठी आई है।राजकली ने कहा कि काका आप तो जानते हैं हमारे लिए काला अक्षर भैंस बराबर है। इसलिए चिट्ठी आप ही पढ़कर सुना दीजिए।काका ने चिट्ठी पढ़नी शुरू ही की थी।कि राजकली जोर-जोर से रोना शुरू कर दी।गाँव की महिलाएँ राजकली को ढाढस देने लगीं,आखिर गाँव के लिए बुरी खबर उस चिट्ठी में थी।काका ने चिट्ठी पढ़कर सुनाया। जिसमें राजकली के पति के शहादत की खबर थी। राजकली पर मानों दुखों का पहाड़ टूट पड़ा हो। वह रो रोकर बेसुध सी हो रही थी।गाँव की सभी महिलाओं के साथ एक औरत रामकली ढाढस देते हुए राजकली से बोली चुप हो जा बहन।
यह विधाता का लिखा लेख ही था शायद इतने दिनों के लिए ही तेरी मांग में सिंदूरी लिखी थी।चुप हो जा बहन चुप हो जा। वहीं पर ही खड़े रामखेलावन काका अचानक फिर चिट्ठी को गौर से देखने लगे तो उनको अपनी गलती का एहसास हुआ कि यह चिट्ठी तो रामकली के नाम पर आई थी और गलती से उन्होंने राजकली के नाम पर पढ़ दिया।
काका ने फौरन भूल सुधार करते हुए कहा ठहरो-ठहरो!अरे यह चिट्ठी तो रामकली के नाम पर आयी है, रामकली के घर वाले शहीद हुए हैं, राजकली के नही, इतना सुनते ही राजकली चुप हो गई और रामकली फूट-फूट कर रोने लगी। उसे रोता देख गाँव की महिलाओं के साथ ही राजकली भी ढाढस देते हुए कह रही थी कि चुप हो जा बहन चुप हो जा इतने दिनों के लिए ही तेरी मांग सिंदूरी होना लिखा था उस विधाता ने।
पास खड़े रामखेलावन काका एक ही समय पर समय का सुचक्र और कुचक्र देखकर हैरान थे।

— आशीष तिवारी निर्मल

*आशीष तिवारी निर्मल

व्यंग्यकार लालगाँव,रीवा,म.प्र. 9399394911 8602929616