लघुकथा

मेरा बेटा

मेरा बेटा
दिव्या का मन भारी हो रहा था।इतनी बड़ी कंपनी की वह अकेली वारिस थी।वह अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थी।वह हमेशा हर क्षेत्र में प्रथम रही थी।शिक्षा,खेल-कूद,हर तरह की प्रतियोगिता में।उसके पापा को उस पर बहुत भरोसा था।वह मम्मी की परी थी।पर पापा उसे बेटी नही मानते थे।वह उनका बेटा थी।उन्होंने उसका पालन-पोषण बेटे की तरह ही किया था।पापा को गुजरे तीन महीने बीत चुके थे।वह इस सदमें से उभर नहीं पा रही थी।माँ, दिव्या को बार- बार समझा रही थी।बेटी उठो अपने पापा के सपने पूरे करो।बेटी इतनी बड़ी कंपनी का भार तेरे ही कंधो पर है।उसका ध्यान तो पापा की मुस्कराती तस्वीर पर ठहर गया था।उसकी आँखें झरने की तरह बह रही थी।वह अपने आँसुओ को रोकना नही चाहती थी।वह इस दर्द को बहा देना चाहती थी।वह खुद इस अवसाद से बाहर आना चाहती थी।पर वह पूरी तरह नाकाम हो रहीं थीं।घर,ऑफिस कोई ऐसी जगह ना थी,जहाँ पापा की याद ना थी।कंपनी की स्थिति भी ठीक नहीं थीं।माँ के शब्द सुनकर वह हैरान रह गई थी।बेटा, अब तुम्हें ही सबकुछ ठीक करना है।पापा के सपने पूरे करने हैं।माँ के मुँह से बेटा शब्द सुनकर वह उठ खड़ी हुई।दिव्या, तुम मेरा बेटा ही हो। उसे ऐसा लगा जैसे पापा ही कह रहे हो। जाओ बेटा मेरा अधूरा सपना पूरा करो।उसे आज अहसास हो रहा था।जैसे पापा ही उसकी पीठ थप-थापा रहे हो और कह रहे हों मेरा बेटा मेरे सपने पूरे करेगा।काश हर पिता अपनी बेटी को बेटा ही समझे,माँ खड़े- खड़े कह रही थी।
राकेश कुमार तगाला
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राकेश कुमार तगाला

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