ग़ज़ल
हौसला हो जो हक़बयानी का।
बाब उलटो तभी कहानी का।
मेरी अपनी नहीं कोई हस्ती,
हूँ महज़ पात्र ही कहानी का।
सब करोना की आज ज़द में है,
कोई मौक़ा न मेज़बानी का।
हाल दिल्ली का कुछ नहीं पूछो,
हाल बेहाल राजधानी का।
कौन जाने हमीद कब रूठे,
कुछ भरोसा न ज़िन्दगानी का।
— हमीद कानपुरी