कहानी : अपना ख्याल रखना
निर्मला एक शासकीय शिक्षिका थी। हाल ही में प्री बोर्ड परीक्षाएं संपन्न हुई थीं और वह बड़ी तन्मयता से बारहवीं की उत्तर पुस्तिकाएं जांचने में लगी हुई थी। तभी मोबाइल की घंटी बजी। देखा तो छोटे भाई अनुज का कॉल था। ” हैलो”, बोलते ही दूसरी ओर से भय मिश्रित आवाज़ आई, “दीदी, पापा को हार्ट अटैक आया है, हालत बहुत गंभीर है , हो सके तो अभी आ जाओ। डॉक्टर कह रहे हैं कि कुछ कह नहीं सकते। बड़ी दीदी को भी बता दिया है। वे भी जीजाजी के साथ आ रही हैं। ” इतना कहकर वह रोने लगा। उसे ढाढस बंधाते हुए वह बोली, चिंता मत करो, पापा को कुछ नहीं होगा। संभालो अपने आपको। अगर तुम ही हिम्मत हार जाओगे तो काम्या(अनुज की पत्नी)और बच्चों को कौन संभालेगा? मैं अभी निकलती हूं। शाम वाली” पांडेय ट्रैवल्स”की बस अभी नहीं निकली होगी। सब ठीक हो जाएगा। “कहते हुए उसने कॉल डिस्कनेक्ट किया। आनन फानन में बैग में दो जोड़ी कपड़े डाले और बस स्टैंड के लिए निकल पड़ी।
घर से बस अड्डा मुश्किल से एक डेढ़ किलोमीटर होगा लेकिन आज यही दूरी पहाड़ उतरने जैसी प्रतीत हो रही थी। मन किसी अनहोनी की आशंका से घबरा रहा था। तीन दिन पहले की बात है भोर में एक भयानक सपने के कारण उसकी नींद खुल गई थी। सपना भी ऐसा जो उसके अंतिम सहारे के छिन जाने की दस्तक दे रहा था। दरअसल उसने देखा कि ड्यूटी से लौटते वक्त पापा को अचानक दिल का दौरा पड़ा और वे दर्द से कराहते हुए गिर पड़े। अंतिम समय में भी वह सिर्फ़ इतना ही बोल पाए, “अपना ख्याल रखना। “वह घबराकर उठ बैठी। देखा तो वह अपने बिस्तर पर थीं। तो क्या यह सपना था? उसे यकीन ही नहीं हो रहा था। घड़ी देखी तो सुबह के चार बज रहे थे। कहते हैं कि भोर का सपना सच होता है। काश यह बात सच न हो सोचते हुए कंपकपाती उंगलियों से उसने पापा के नंबर पर कॉल किया। दिल की धड़कनें बढ़ रही थीं और मन रूआंसा हो रहा था। जनवरी की कड़ाके की ठंड में भी उसका शरीर पसीने से तर बतर था।
” गुड मॉर्निंग निम्मो”, सामने से वही चिर परिचित जोश से भरा स्वर सुनाई दिया। “ओह पापा, आप ठीक तो हैं न?” पूछकर उसने ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया। पापा ने घबराकर कारण पूछा तो उसने अपने सपने के बारे में बताया। पापा ने हंसकर कहा, ” अरे पगली! तुमने तो मेरी उम्र बढ़ा दी। सुना है कि किसी की मौत का सपना देखो तो उसकी जीवन रेखा बढ़ जाती है। और वैसे भी मैं तुम्हारा भविष्य सुरक्षित करने से पहले मरने वाला नहीं हूं। “आज कहीं वह सपना सच होने तो नहीं जा रहा?सोचकर रूह कांप उठी। “नहीं, भगवान मेरे साथ ऐसा नहीं कर सकते, “वह बुदबुदाई। बगल में बैठी महिला ने पूछा कि कोई परेशानी तो नहीं है? वह कुछ नहीं बोल सकी केवल न में सिर हिला दिया। लग रहा था कि पंख लगाकर पापा के पास पहुंच जाए। जाने क्यों ऐसा लग रहा था कि समय की मुट्ठी से पापा के साथ की रेत फिसलती जा रही थी। वह उस फिसलन को रोक लेना चाहती थी किन्तु स्वयं को लाचार महसूस कर रही थी। सफ़र लगभग चार घंटे का था। उसने अपनी पलकें बंद की और खिड़की से गर्दन टिकाकर बैठ गई। वह अतीत की यादों में खो गई।
बचपन से लेकर अभी तक उसने पापा की जीवटता ही देखी थी। फिर चाहे वे परिवार के साथ बिताए खुशियों के अमूल्य पल हों या फिर अपने जीवन साथी का सदा के लिए छूटता साथ। उन्होंने कभी परिस्थितियों से हार मानकर उसे पीठ नहीं दिखाई बल्कि उसका डटकर सामना किया। हालांकि मम्मी के आकस्मिक निधन ने उन्हें भीतर तक तोड़ दिया था। उन्हें इस बात की ग्लानि आज तक थी कि वे मम्मी को भरपूर खुशियां नहीं दे पाए थे। दरअसल पापा आठ भाई बहनों में सबसे बड़े थे। घर की आर्थिक स्थिति ख़राब होने के कारण उन्हें पढ़ाई बीच में ही छोड़कर काम की तलाश में निकलना पड़ा। यहां तक कि उन्होंने कुछ दिनों तक मजदूरी भी की। उसी दौरान भारत पाकिस्तान युद्ध छिड़ गया। बड़ी संख्या में सैनिकों की भर्ती हो रही थी। वे भी उस भर्ती में शामिल हो गए। कहते हैं न कि जब भूख और बदहाली हावी रहती है तो मृत्यु का भय गौण हो जाता है। फ़ौज में बतौर सिपाही उनका चयन हो गया। भारत ने युद्ध में पाकिस्तान के दांत खट्टे कर दिए। उसे मुंह की खानी पड़ी।
उनकी पोस्टिंग हर तीसरे साल अलग स्थान के लिए हो जाती थी। फैमिली कवार्टर न मिल पाने के कारण वे मम्मी को अपने साथ नहीं ले जा सकते, ऐसा वे मम्मी से कहा करते थे। यद्यपि ये बात दोनों जानते थे कि उन्हें साथ लिवा जाने की असली वजह क्या थी? वे अपना पूरा वेतन घर भेज दिया करते थे जिससे कि परिवार का भरण पोषण हो सके। मम्मी ने भी कभी साथ जाने की ज़िद नहीं की। साल में दो या तीन बार ही छुट्टी मिला करती थी तभी मिलना होता था। बाकी वक्त तो चिट्ठियां ही उनकी बातचीत का जरिया थीं। चौबीस साल भारत मां की सेवा करके सराहनीय सेवा का पदक प्राप्त कर सेवानिवृत्त होकर वे लौट आए। ज्यादा कुछ जमा पूंजी थी नहीं क्योंकि वह पहले ही भाई बहनों पर खर्च कर चुके थे। जो कुछ था वह निर्मला, उसकी दीदी और उसके भाई की परवरिश, शिक्षा दीक्षा और शादी में खर्च हो गया। उनके लिए केवल पेंशन ही एकमात्र सहारा बचा था। मां को सोने के कंगन और कोसा की साड़ी पहनने का बड़ा शौक था, जो वे उनके मरते दम तक पूरा नहीं कर सके थे। निर्मला को याद आ रहा था कि मम्मी को अंतिम विदाई देते वक्त पापा यह कहकर कितना रोए थे कि मैं तुम्हारी इतनी सी इच्छा भी पूरी नहीं कर सका, काश तुमने थोड़ा तो वक्त दिया होता।
मम्मी के पंच तत्व में लीन होने के बाद उसके पापा काफी अकेलापन महसूस करने लगे थे लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि एक सिपाही कभी हार नहीं मानता। उन्होंने एक प्राइवेट नौकरी कर ली और उसी में अपना मन रमा लिया। उसे याद आ रहा था कि जैसे ही उसके पापा को पता चला कि रमेश उसे शराब के नशे में धुत होकर पीटते हैं तो बिना किसी से झगड़ा किए उन्होंने कहा, “मैंने आपको अपनी नाजों से पाली बेटी को इसलिए नहीं सौंपा था कि आप उसकी दुर्गति कर दें। मेरी बेटी आज भी मेरे लिए बोझ नहीं है। वह अपना और अपनी बेटी का पालन पोषण बेहतर तरीके से कर सकती है। आप लोगों से उसकी कद्र न हो सकी, बड़ा अफसोस है।” यह कहकर वे उसे अपने साथ ही लेकर चले आए। निर्मला जो कदम उठाने की हिम्मत पिछले सात सालों से नहीं जुटा पा रही थी और तिल तिलकर जी रही थी, पापा के हौसले के साथ तुरंत उठा लिया।
हताशा से भरी और आत्मबल खो चुकी निर्मला को पापा ने प्रोत्साहित किया और उसे सरकारी नौकरी के लिए तैयारी करने के लिए समझाते हुए बोले, “देखो बेटा, जब तक मैं ज़िंदा हूं तब तक मैं तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा लेकिन मेरे मरने के बाद भी तुम्हारा और मिनी का भविष्य सुरक्षित रहे इसके लिए तुम्हारा शासकीय सेवा में जाना बहुत जरूरी है।” निर्मला ने अपने आपको संभाला और तैयारी शुरू कर दी। उसकी मेहनत रंग लाई और उसका चयन व्याख्याता पद के लिए हो गया और वह नौकरी करने दूसरे जिले में चली गई। उसे याद आ रहा था कि विदा करते समय पापा की आंखों में आंसू लेकिन मन में संतुष्टि थी। गले लगाते हुए उन्होंने कहा था कि अब उनकी चिंता दूर हो गई।
बस एक झटके के साथ रुकी तो वह अपने अतीत की यादों से बाहर आ गई। उसने ऑटो किया और दस मिनट में घर पहुंच गई। दरवाज़े पर आस पड़ोस के बहुत से लोग एकत्र थे। भीड़ देखकर उसका दिल जोरों से धड़कने लगा, वह भारी क़दमों से वह आगे की ओर बढ़ी। तभी सामने से भाई आता दिखाई दिया उसके चेहरे की घबराहट बता रही थी कि कुछ भी ठीक नहीं है। “आओ दीदी, पापा कब से तुम्हारी ही राह देख रहे हैं। हर एक मिनट में यही पूछ रहे हैं कि निम्मो आई कि नहीं? कब तक आएगी? कहीं ऐसा तो नहीं कि उससे मिले बिना ही चला जाऊंगा”, कहते हुए वह रो पड़ा। यह सुनते ही निर्मला अपना धैर्य और बची खुची हिम्मत भी खो बैठी और कमरे की ओर दौड़ पड़ी। आहट सुनते ही पापा ने दरवाज़े की तरफ देखा। निर्मला को देखते ही कांपते हाथों से अपने पास आने का इशारा किया। निर्मला दौड़कर उनकी छाती से लिपटकर फूट फूटकर रोने लगी। पापा ने उसके सिर पर हाथ फेरा और उसके आंसू पोछते हुए बोले, “बेटा, इस तरह रोकर विदा करोगे तो मेरी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी। तुम सभी लोग अपने पैरों पर खड़े हो। मुझे तुम्हारी मम्मी बुला रही हैं। मुझे खुशी खुशी जाने दो। तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो। जीवन पथ पर अकेले ही माता पिता की भूमिका निभा रही हो। मिनी को भी अपने जैसी बहादुर बनाना और अपना ध्यान रखना।” इतना कहते कहते उनका हाथ निष्प्राण होकर नीचे की ओर झूल गया। देखा तो उनकी सांसें थम गईं थीं और वे चिर निद्रा में जा चुके थे। कमरे में केवल आत्मजनों की चीखें शेष रह गईं थीं।
— कल्पना सिंह
बहुत ही मार्मिक रचना, दिल को छूने वाली