ग़ज़ल
बेबसी पर भी श्रमिक की हमको लिखना चाहिए।
दर्द सीने का कहीं लफ़्ज़ों में ढलना चाहिए।
इक ज़रा सी चूक पर मिलती सज़ा भारी बहुत,
इक मिनट भी यूँ न गफ़लत में निकलना चाहिए।
काम हो बेहद ज़रुरी ले के पूरी एहतियात,
सोच करके खूब अब घर से निकलना चाहिए।
अब रिवायत दे न पायेगी तरक़्की़ ठीक ठाक,
अब तरीकोंं को हमें अपने बदलना चाहिए।
रातरानी जो लगा आये कभी थे बाग में,
उससे अब वातावरण पूरा महकना चाहिए।
— हमीद कानपुरी