गुरु हरगोविंद
पंजी पियाले पंजी पीर, छठमु पिरु बैठा गुरु भारी।
अरजनु काइआ पलटी कै मूरति हरिगोविंद सवारी।।
इस संसार में कोई भी पंच तब तक ही उन्नत और समृद्धि शाली रहा जब तक उसके पास राज्य करने की शक्ति व सामर्थ्य रहा शक्ति घटते ही अनेक पंथ व संस्कृति आया तो गुलाम हो गई या समाप्त होकर ऐसे ही भारत के सनातन धर्म के एक अंग खालसा पंथ में गुरु अर्जुन देव जी के घर इस बालक का जन्म होता है गुरु गद्दी को हथियाने के लिए परिवार वालों द्वारा बहुत षड्यंत्र किए जाते हैं बचपन में ही इस बालक को मारने के अनेकों प्रयास परिवार के बड़े सदस्य करते हैं जिनमें अर्जुन देव जी के बड़े भाई पृथिये व उनकी पत्नी द्वारा इस दिव्य बालक को एक बार सांप छोड़कर व एक बार दही में जहर मिलाकर मारने का षड्यंत्र किया दोनों ही बार ईश्वर की कृपा से यह बालक बच गया। क्योंकि इसे तो सनातन धर्म की रक्षा का एक नया प्रतिमान स्थापित करना था।
यही बालक आगे जाकर गुरु हरगोविंद हुए। बचपन मे इन्हें चेचक हो गया, गुरु अर्जुन देव ने अपनी मंत्र शक्ति से उसे ठीक किया, यह बताता है कि गुरुओं का अध्यात्मिक तपोबल कितना श्रेष्ठ होता था। इनके विरोधी लगातार गुरु अर्जुन देव की शिकायत लाहौर के बादशाह से करते रहते। गुरु अर्जुन देव जी अपने अंत समय से पूर्व हरगोविंद को धर्म रक्षा, संत सेवा, दिन सहायता के सारे मंत्र सीखा गए। गद्दी धारण करते समय हरगोविंद जी ने पगड़ी देने पर बाबा बूढ़ा जी को स्मरण कराया कि पिता जी वचन देकर गए है, अब हमें तलवार पहननी होगी, ऐसी परंपरा थी कि तलवार बाएं तरफ पहनी जाती है, गुरुओं ने तलवार पहनाई तो वह हरगोविंद जी के दाएं तरफ थी, जब गुरु उसे ठीक करने लगे तब हरगोविंद जी ने मना किया और कहा जो परमात्मा की इच्छा है इसे रहने दीजिए एक और तलवार पहना दीजिए। इस प्रकार गुरु हरगोविंद के गद्दी पर बैठते ही हर सरदार द्वारा 2 तलवार रखने की परंपरा का आरंभ हुआ।
गुरु अर्जुन देव के बलिदान को समाज भुला नही था, हरगोविंद जी के मन में भी बदले की अग्नि धधक रही थी, वे यवनों को सबक सिखाने के लिए हजारों सिक्खों को तैयार करने लगे। हिन्दू समाज के हर घर से एक बड़ा बेटा सरदार बनता था जिसे कंघी, कड़ा, कृपाण आदि सजाकर सरदार बनाया जाता। कई गुरुओं से जारी इस परंपरा के कारण अब सिक्खों की एक बहुत बड़ी संख्या दिखाई देने लगी थी। सो यह एक पंथ बन गया। कुछ लोग जो शांति अहिंसा की बातें करते हैं उनका पाला तुर्कों, मुगलों जैसे दुर्दांत आक्रमणकारियों से नहीं पढ़ा था यही कारण था सिख समाज भी शांतिपूर्ण होते हुए सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार हुआ। गुरु हरी गोविंद जी के संबंध में भी चापलूस और द्वारा शिकायतें लगातार जहांगीर को पहुंचाई जाती रही कि यदि इस बालक पर काबू नहीं पाया गया तो भविष्य में वह शाही सेना को टक्कर देने योग्य हो जाएगा जहांगीर भी किसी षड्यंत्र के जरिए गुरु हरगोविंद को समाप्त करने का विचार रखता था, इसी षड्यंत्र के तहत जहांगीर ने गुरु हरगोविंद जी को कैद कर लिया था जब यह समाचार पूरे पंजाब में फैला तो विरोध की एक आंधी पूरे राज्य में दौड़ गई जनता को यह विश्वास था की जहांगीर जैसा धूर्त गुरु अर्जुन देव जी की तरह ही गुरु हरगोबिंद साहिब जी को भी मरवा सकता है इसीलिए पंजाब सहित आसपास की सभी रियासतों में विद्रोह के स्वर बढ़ने लगे यह समाचार जहांगीर तक पहुंचा तो उसने गुरु हरगोविंद को रिहा करने का हुक्म दिया परंतु है जहांगीर की कैद में 52 राजा गुरु हरगोविंद की रिहाई का समाचार सुनते ही बिलक बिलक कर रोने लगे यह गुरुवार आप चले जाएंगे तो हमारा क्या होगा यह देख कर गुरु हरगोबिंद साहिब ने रिहा होने से इनकार कर दिया तब जहांगीर को इनके साथ 52 राजाओं को भी रिहा करना पड़ा इसी कारण गुरु हरगोविंद सिंह जी को दाता बंदी छोड़ भी कहा जाता है।
गुरु हरगोबिंद साहिब से युद्ध के लिए एक तरफ जहांगीर की शाही सेना तैयार थी तो दूसरी तरफ अपने गुरु के आदेश को संकल्प मानने वाले वीर योद्धा गुरु हरगोविंद के नेतृत्व में तैयार खड़े थे जहांगीर इस युद्ध को डालना चाहता था इसीलिए उसने गुरु हरगोविंद सिंह से बात करनी थी परंतु उससे पहले जहांगीर की मृत्यु हो गई अब दिल्ली की सल्तनत शाहजहां के हाथ में थी, शाहजहां ने गुरु जी से टकराव लेना ठीक नही समझा, परन्तु लाहौर के बादशाह लगातार हमले करवाता रहा। अलग अलग सेनापतियों के नेतृत्व में सेना भेजता रहा। अब युद्ध के लिए सेना, तोप, गोला, शस्त्र रखना जरूरी हो गया था, गुरु हरगोविंद जी कई युद्ध लड़कर अब आगे भविष्य की सोचने लगे थे, हरि राय को गुरु गद्दी सौंप कर वे साधना में लीन हो गए। 1609 में गुरु हर गोविंद जी ने अमृतसर में अकाल तख्त का निर्माण किया, इसके लिए वे इतिहास में सदैव जीवंत रहेंगे। आज भी अमृतसर में सभी गुरुओं का इतिहास संरक्षित है, जिससे हिन्दू समाज को गुलामी और इस्लामी आक्रान्ताओं की बर्बरता जानने को मिलती है। संगत के सभी गुरुओं को इस्लाम स्वीकारने या बलिदान देने की शर्त रखी गई थी। मानव जाति के लिए यह अदम्य इच्छाशक्ति और बलिदान का उदाहरण है, सहस्त्र यंत्रणाओं के बाद भी इस्लाम स्वीकार नही किया। गुरुओं के संघर्ष को ही यदि हिन्दू समाज स्मरण कर ले, तो सनातन धर्म पर डटे रहने का संस्कार और संघर्ष का प्रोत्साहन मिलता है।
— मंगलेश सोनी