अपनी धरती
कहते हैं सब कि … अपनी “धरती”
रहने लायक अब बची ही नहीं ।
तो… हे कोलंबस ढूंढो नई दुनिया
हो चारों तरफ जिसमें हरियाली ।
प्रकृति का वास हो जिसमें
फैली हो… चहुंओर खुशहाली।।
“बढ़ता धुँआ बढ़ती आबादी
और व्यर्थ में पानी कि बर्बादी” –
की चिंता रहित रहित ढूंढो संसार
जहाँ बसाएंगे घरबार।।
पर… पर क्या हम उस दुनिया को भी
हरा भरा रख पाएंगे ?
विकास की अंधी आंधी से,
क्या उसको बचा पाएंगे ?
तो… तो क्यों न हम, इस दुनिया को ही
नव दुनिया में तब्दील करें ।
कल (बीता हुआ ) की छोड़ें, कल (आने वाला) की सोचें
और आगे की फ़िक्र करें। ।
तो… तो आओ मिल कर सब यह प्रण लें
प्राकृतिक संसंधानों का न करेंगे संहार।
प्रकृति माता है जननी सबकी
भूल कर भी इस पर, न करेंगे प्रहार।।
अंजु गुप्ता