महात्मा कबीर को अवतारी मानना ही साहित्योचित
महात्मा कबीर को अवतारी मानना ही साहित्योचित
(कबीर जयंती पर विशेष)
हिन्दी सहित्य के इतिहास के आधार पर कबीर को मात्र निर्गुण काव्य धारा का कवि मान लेना कबीर को सीमा में बाँध देना है। कबीर को युगवादी, क्षेत्रवादी और जातिवादी की संज्ञा दे देना भी कबीर के संपूर्ण व्यक्तित्व का मूल्यांकन नहीं है। यदि यह कहा जाए कि कबीर का जन्म नहीं अवतार हुआ तो कबीर वादियों के तमाम प्रश्न चिह्न खडे हो जाएंगे। वे कहेंगे कि कबीर तो अवतारवाद के विरोधी थे, लेकिन यहाँ स्पष्ट करना अत्यावश्यक होगा कि जो लोग कबीरवादी हैं और वे कबीर के जन्म को यदि किसी विधवा स्त्री की कोख से मानते हैं, तब क्या उस नारी का सामाजिक अपमान नहीं है? क्या एक नारी को गरियाना नहीं है? दूसरी बात आज महिला सशक्तीकरण के युग में कबीर की माँ का इतिहास दोहराकर पुनः नारी की आवरू पर सवालिया निशान नहीं होगा? इसलिए कबीर का काशी के लहरतारा तालाब में नीरू और नीमा दम्पति को प्राप्त होना एक अवतार ही है। अवतार वह घटना है जिसमें सृष्टि नियंता (ईश्वर)संसार में बढ़ते अनाचार, दुराचार, पापाचार को समाप्त करने व धर्म औऱ न्याय की पुनर्स्थापना के लिए विशिष्ट मानव का स्वरूप धारण करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे
धर्म-धुरी पर मानवीय मूल्यों के संचालन में कबीर को राम,कृष्ण,गौतम महावीर के समानांतर खड़ा करना कबीर के व्यक्तित्व का सार्वकालिक पूर्ण साहित्यिक मूल्यांकन है। कबीर उस युग की राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक विषम परिस्थितियों के तिमिराच्छन को दूर कर समाजवाद के प्रकाश को प्रसारित करने वाले प्रचण्ड सूर्य हैं। कबीर ने भक्ति के मानसरोवर में अपनी निर्गुण कनक रश्मियों से जो कमल विकसित किए वे आज भी बिना मुरझाए प्रेम और सद्भावना के रूप में महक रहे हैं। कबीर के अथक प्रयासों का ही परिणाम है कि कुरीतियों, कुप्रथाओं व आडम्बरों में भटका हुआ भारत आज विज्ञान और अध्यात्म का विश्व का पहला अग्रणी देश बन गया है।
काशी विद्यापीठ हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ वासुदेव सिंह में अपनी पुस्तक ‘कबीर’ में कबीर के व्यक्तित्व और विश्लेषण में लिखा कि “कबीर का व्यक्तित्व न केवल हिन्दी संत कवियों में अपितु पूरे हिंदी साहित्य में बेजोड़ है । हिंदी साहित्य के इतिहास में तुलसीदास को छोड़कर इतना प्रतिभाशाली और महिमामंडित व्यक्तित्व दूसरे कवि का नहीं है। वह हिंदुओं के लिए ‘वैष्णव भक्त’ मुसलमानों के लिए ‘पीर’ सिक्खों के लिए ‘भगत, कबीरपंथिओं के लिए ‘अवतार’ आधुनिक राष्ट्र वादियों के लिए ‘हिंदू-मुस्लिम-ऐक्य विधायक’ नववेदांतियों के लिए ‘विश्व धर्म या मानव धर्म प्रवर्तक’, प्रगतिशील तत्वों की दृष्टि से कमजोर वर्ग के पक्षधर क्रांतिकारी और समता, बन्धुत्व-भावना न्याय तथा एकता के प्रतिपादक के रूप में मान्य है। कहा जाता है कि उनकी मृत्यु के अवसर पर मगहर में उनके हिंदू – मुस्लिम अनुयायियों में उनके शव को जलाने अथवा दफनाने के प्रश्न को लेकर काफी विवाद हो गया था। इस किंवदंती में कितना सत्य है , यह तो नहीं कहा जा सकता किंतु इससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि उनका व्यक्तित्व संकीर्ण धार्मिक सीमाओं से इतना परे था कि वह हिंदू-मुस्लिम दोनों संप्रदाय के श्रद्धा भाजन बन सके थे । उनके व्यक्तित्व की उदारता का इससे भी प्रमाण मिलता है कि उनके हिंदू- मुस्लिम भक्तों के अतिरिक्त सिक्खों ने भी उनकी रचनाओं को अपने धर्म ग्रंथ में स्थान दिया और उनके विचारों की उदारता को देखकर पाश्चात्य विद्वानों ने उन्हें ईसाई धर्म से प्रभावापन्न घोषित किया और कहा कि उनके कतिपय उपदेश बाइबल के निकट हैं। ग्रियर्सन ने कहा कबीर के सिद्धांत सेंट जॉन की कविताओं से मेल खाते हैं।”
आध्यात्मिक दृष्टि से कबीर का साहित्य आज भारत के लिए ही नहीं विश्व के लिए प्रासंगिक है। अतः कबीर को अवतारी पुरुष मानना ही न्यायोचित और साहित्योचित है।
डॉ. शशिवल्लभ शर्मा