जय विजय, जून 2020 : एक समीक्षा
‘जय विजय’ (जून 2020) का अवलोकन किया। अन्य अंकों की भाँति प्रस्तुतांक की ‘संपादकीय’ पढ़कर उन व्यक्तियों के प्रति आक्रोश से भर उठा, जिन्होंने गर्भवती हथिनी को बारूद खिलाकर प्राणांत कर दिए, वह भी केरल जैसे 100% शिक्षित राज्य में ! मैं उस असंवेदित व्यक्तियों की कुंठाओं में जानना चाहूँगा, न कि उनके धर्म को लेकर, क्योंकि अपराधी टाइप के लोग हर धर्म में होते हैं । हमारे यहाँ साँड़ों की संख्या कभी-कभी बढ़ जाती है, खेतों में लगे फसल नष्ट होने लगते हैं, दुकानों में उनके द्वारा खाद्य-सामग्रियाँ नष्ट की जाने लगती हैं और साँड़ों को भगाने के लिए जब सामाजिक व प्रशासनिक पहल नहीं होती दिखती है, तो ऐसे प्रभावित दुकानदारों व किसानों की संवेदना मर जाती है और वे मकई के भुट्टे में मछली मारने की बंशी लगा देते हैं, ताकि साँड़ उसे खाये और गले में या आँत में बंशी से घायल होकर मर जाये ! इतना ही नहीं, उन अशिष्ट साँड़ों के शरीर पर गर्म पानी व गर्म तेल डालकर दुकानदार भी घोर अशिष्ट और असंवेदित हो जाते हैं ! हम ऐसी धृष्टता के लिए किसे दोषी मानूँ ? इसके कारण और कारक ढूंढ़ने होंगे ! विदित है, टिड्डी भी एक प्राणी है, पर टिड्डियों द्वारा उत्पात क्या है ? भूखी गर्भवती हथिनी को मारा जाना मानव का पाश्विक व्यवहार है, सनकपन है, मजाक-मजाक में है, तो क्रूरता लिए वीभत्स मजाक है, जिनके लिए आपराधिक कृत्य करनेवाले दोषी तो है ही, साथ ही स्थानीय प्रशासन भी दोषी हैं।
लघुकथाओं में राकेश तगाला की ‘अवार्ड’, लीला तिवानी की ‘मकड़ी’, दिलीप भाटिया की ‘परिवर्त्तन’ बेस्ट है, किन्तु लीला जी की ‘मकड़ी’ अगर ‘मक्खी’ के संदर्भ में है, तो ठीक है, किन्तु ‘मकड़े’ के संदर्भ में है, तो एक प्रश्न है कि मकड़े कान में प्रवेश कर नहीं सकते हैं ! अशोक दर्द की कहानी ‘मिस कॉल’ न होकर ‘मिस्ड कॉल’ होनी चाहिए ! कल्याणी सिंह की कहानी ‘प्रायश्चित’ भी अच्छी बन पड़ी है । अंजू गुप्ता की कविता ‘गुरु हथौड़ा हाथ’ निरालाजी की कविता ‘तोड़ती पत्थर’ से प्रभावित है। सुलक्षणा अहलावत की कविता बड़ी प्रेरणास्पद है, यथा- ‘गिरी हूँ, तो उठूंगी ही’! अशोक गुलशन रचित गजल काफी भावप्रवण और मार्मिक है, यथा- ‘कर्जा लेकर गए बम्बई, कर्जा लेकर लौटे हैं’ से बाल भास्कर मिश्र की यह पीड़ा प्रतिबिम्बित होती है कि ‘पुन: मजदूरों का न हो पलायन’ ! इसी संदर्भ में मंगलेश सोनी प्रणीत लेख ग्रामीण भारत को पुन: प्रतिष्ठापित करती प्रतीत होती है!
प्रस्तुतांक में प्रकाशित नई जानकारियों में प्रियांशु सेठ की ‘टिक टॉक….’ और पूर्वोत्तर के वनपुरुष जाघव पियेंग को ‘जय विजय’ की चिर उपलब्धि कही जा सकती है। …. तो मनोज कुरील के कार्टून का क्या कहना ? है बिल्कुल लाजवाब ! स्तम्भ ‘विकलांग बल’ न लिखा जाकर ‘दिव्यांग बल’ होनी चाहिए थी। ‘जय विजय’ के वेबसाइट में मेरी 230 रचनाएँ प्रकाशित होने के बाद ही 2 रचनाएँ इस अंक में प्रकाशित हुई है, प्रसन्नता ने लम्बी सफर तय की, यह ठीक उसतरह से है, जब मैं ‘वर्ल्ड रिकॉर्ड’ के लिए 1996 में पहलीबार गिनीज बुक और लिम्का बुक के लिए आवेदन किया था, किन्तु सफलता 2018 में उन रिकॉर्ड्स बुक में नाम दर्ज होकर हुई यानी 23 सालों के सफर । हालाँकि, पहले ही उन दोनों रिकॉर्ड्स बुक से अप्रिशिएशन लेटर प्राप्त हो चुकी थी। ज्ञात हो, साहित्य, दर्शन और गणित में मेरी अभीष्ट रुचि है। अंत में यह बात फिर कहना चाहूँगा कि कविताओं को तीसरे पृष्ठ से लेकर अंतिम पृष्ठ से पहले तक एक-एक कर ‘सेट’ की जाय, तो सजावट में और भी बुनावट होगी ! ….क्योंकि एक ही जगह कविताओं के प्रकाशन से गड्ड-मड्ड लगने लगती है ! शेष रचनाएँ यथाप्रासंगिक है ! यह मेरे विचार है, अन्यथा न लेंगे !