इत्र है खुशबू का राजा
” मैं इत्र से महकूँ,ये आरजू नहीं है,
तमन्ना है मेरे किरदार से खुशबू आये। “
कहा जाता है कि भोजन संबंधी मूलभूत आवश्यकता के बाद सौंदर्य है जो हमेशा से इंसान को मोहित करता रहा है इसलिए इस खूबसूरती को बढाने के लिए तमाम तरीकों के प्रयोग किये गये।
कल्पना कीजिए कि आपके वर्कस्थल पर टायर या पालीथीन जलाया जा रहा हो तो आपके मन: स्थिति क्या होगी? आप सारा काम छोड़कर भागने का बहाना तलाशेंगे। एक शोध में तो यह निष्कर्ष निकला था कि किसी कार्यालय के काम को बर्वाद करना है तो उसके बाहर दुर्गंध फैलाने की व्यवस्था कर दो…..। यही कारण है कि अपने आस- पास सभी लोग फूलों को सजाना चाहते हैं जिससे भीनी-भीनी खुशबू आती रहे। स्कॉटलैंड के रसायनशास्त्री थॉमस ग्राहम ने सन् 1883 गैसीय विसरण का नियम इत्र के विसरण से प्रभावित होकर ही दिया होगा।
खुशबू से इंसान का नाता बहुत पुराना है, एक ऐसी खुशबू की चाह सबको होती है जो मदहोश कर जाये । जब हम कोई खास किस्म की खुशबू को महसूस करते हैं तो, उसकी तरफ अनायास ही आकर्षित हो जातें हैं और ये जिज्ञासा होती है कि ये मदहोश कर देने वाली महक कहाँ से आ रही हैं, और इस तरह ये महक हमारे दिमाग में घर कर जाती है और हमारी याददाश्त के एक हिस्से में गुम हो जाती है और जब सालों बाद दोबारा उस सुगंध को महसूस करते हैं तो दिमाग के किसी कोने में दबी उस महक की यादें ताज़ा हो जाती हैं । मेरे पास इस मदहोश कर देने वाली महक की छोटी सी मगर, बहुत ही रोचक कहानी है, तो सोचा कि आप के साथ साझा करूँ।
‘इत्र’ फारसी शब्द है। ये ‘अत्र’ से बना है जिसका मतलब होता है पेड़ पौधे, फूल, पत्तियों से बना प्राकृतिक खुशबूदार तेल। इत्र का आशय चरवाहों द्वारा लाईं जड़ी बूटियों से था, जिन्हें जलाने के बाद जो महक व तेल निकला था, बाद में इसे इत्र के रूप में पहचान मिली। फारस, मध्य पूर्व, भारत जैसे कई अन्य प्राचीन और समृद्ध सस्कृतियो वाले देशों में ‘इत्र’ का इतिहास मानव सभ्यता जितना ही पुराना है। भारतीय सस्कृति में ‘इत्र’ रमा हुआ है, भारत में सदियों से राज घरानों के लोग इत्र का प्रयोग करते आ रहे हैं। कई पुरातात्विक खोजों में, शाही महलों में इत्र बनाने के सामान मिले हैं। 7 वी सदी के प्रारंभ में थानेश्रर की राजगद्दी पर बैठे राजा हर्षवर्धन की राजधानी कन्नौज विश्व प्रसिद्ध है। आज भी यहाँ पुराने तरीकों से इत्र बनाया जाता है, तांबे के बड़े से कड़ाहों और बांस से बनी पाइपों के जरिए अत्तर और हाइड्रोसोल (गुलाब जल, केवडा जल )तैयार किया जाता है। कन्नौज में 250 से भी ज्यादा इत्रघर हैं। इत्रों के इस शहर ने आज भी अपनी इस कला को अपने कलेजे से लगाकर रखा है। निजामों का शहर हैदराबाद भी अपने महकतें इत्रों के लिए प्रसिद्ध है। समय के साथ यहाँ जरूर इत्र का काम कम हुआ है लेकिन उस समय की मोहक सुगंध पुराने हैदराबाद को फिर से जाग्रत कर देती हैं। अगर इत्र को सीधे त्वचा पर लगाया जाये तो इसका कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होता, बल्कि इसकी सुगंध आधुनिक परफ्यूम के मुकाबले ज्यादा समय तक रहती है।
लगभग सभी धर्मों में इत्र का इस्तेमाल किया जाता है। एक ओर जहाँ हिन्दू धर्म में देवी- देवताओं की पूजा पाठ और धार्मिक अनुष्ठान के समय इत्र का इस्तेमाल किया जाता है, वही ईद के समय इत्र की मांग बढ जाती है। वेद, बाइबिल, कुरान और जरथुस्त्र धर्म के जेद अवेस्ता जैसे प्राचीन और पवित्र ग्रंथों में भी इत्र का जिक्र आया है। इसका उपयोग दैनिक कार्यों व धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता था। पुरातात्विक खोजों से पता चलता है कि भारतीय प्रायद्वीप में रहने वाले लोगों को सुगंधित पौधों के बारे मे जानकारी पहले से ही थी। समय के साथ ही धीरे-धीरे उन्होंने कुछ प्रयोग किये और पौधों को दबाकर, कूट कर और आसवन प्रकिया ( डिस्टिलेशन) से सुगंधित तेल बनाने की कला को ईजाद किया । सिंधु घाटी की सभ्यता में भी खुदाई के समय इत्र रखने के जार और टेराकोटा व तांबे के बनें बर्तन मिलें है। इन बर्तनों का उपयोग 5000 वर्ष पहले किया जाता था और इन बर्तनों को ‘देग’ कहा जाता था। परम्परागत तरीके से इत्र बनाने वाले फूलों के मौसम में अपने ‘देग’ के साथ पूरे दक्षिण एशिया में यात्रा करते थे और लोगों को ताज़ा इत्र बना कर दिया करते थे ।
संस्कृत भाषा के साहित्य में भी इत्र की खुशबू का जिक्र आता है। वाराह मिहिर (505 ईस्वी -587 ईस्वी) के द्वारा छठीं शताब्दी में लिखे गये संस्कृत भाषा के ग्रंथ वृहत्संहिता मे मिलता है। उस समय खुशबू का इस्तेमाल मुख्य रूप से पूजा, बिक्री, व आत्म सुख के आनंद के लिए किया जाता था। वृहत्संहिता में एक पूरा अध्याय इत्र पर ही है और इसका नाम गधंयुक्ति है। इसमें इत्र बनाने की विधि व सामाग्री का विस्तार से वर्णन किया है और साथ ही साथ इसमें मुखवास (माउथ फ्रेशनर) बाथ पाउडर, अगरबत्ती और टैलकम पाउडर के लिए भी खुशबू बनाने की विधि का वर्णन मिलता है। भारत में इत्र बनाने की परंपरा हजारों साल पहले से है। इत्र की अगर सब से लोकप्रिय खोज की बात की जाए तो वह ‘गुलाब जल’ है, जिसका अविष्कार जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ ने किया था। उत्तर भारत में 7 वी शताब्दी में लिखे गये ग्रंथ ‘हर्षचरित’ में ‘अगर ‘ (ईगल वूड) की लकड़ी से बनें खुशबूदार तेल के उपयोग का वर्णन है । प्राचीन भारत में इत्र बनाने के लिए खुशबूदार फूलों और पौधों को पानी या तेल में डुबोकर रखा जाता था। इससे धीरे-धीरे पौधे अपनी खुशबू पानी या तेल में छोड़ दिया करते थे। इन इत्रों को राजघराने के लोग या महत्वपूर्ण लोग ही इस्तेमाल करते थे।
भारत में इत्र के बडे शौकीनो में मुगल बादशाहों का नाम आता है। हैदराबाद के निजाम को चमेली का इत्र बहुत पसंद था। इत्र को लेकर कई कहानियां भी लिखी गईं। महान शायर ग़ालिब भी इत्र के बहुत बडे कद्रदान थे। कहा जाता है कि जाड़े के मौसम में जब ग़ालिब अपनी प्रेमिका से मिलने गये थे तो हिना का इत्र लगाकर गयें थे। अकबर भी रोज इत्र का इस्तेमाल किया करता था। किसी भी हिन्दू व मुगल राजकुमारियो का स्नान खुशबू व इत्र के बिना पूरा नहीं होता था। मुगल रानियों व राजकुमारियो को असम में तैयार किया गया ‘ऊद’ का इत्र बेहद पसंद था। इत्र को कई ग्रंथों में इस संसार की सबसे कीमती वस्तु कहा गया है। यह बहुत ही गाढ़ा परफ्यूम होता है, यही कारण है कि इन्हें बहुत ही छोटी आकार की शीशियो में बेचा जाता है। काँच की शीशियों का प्रयोग इस लिए किया जाता है कि काँच में सामान्यत: कोई रासायनिक प्रक्रिया नहीं होती और इसमें इत्र की खुशबू बरकरार रहती है। ये शीशियाँ भी बहुत ही सुन्दर डिजाइन वाली होती हैं।प्राकृतिक तेल की शुद्धता के कारण इसके खराब होने की संभावना कम ही है। अगर इत्र के अर्क को पतला करने के लिए वेजिटेवल आयल मिलाया गया तो जल्दी खराब होने की संभावना ज्यादा होती है। इत्र को पारंपरिक तौर पर सजावटी और कांच की सुंदर बोतलों में भेंट दिया जाता है। इन सुदंर बोतलों को ‘इत्रदान’ कहा जाता है। मेहमानों को भेट में इत्र देने की परंपरा पूर्वी दुनिया के कई हिस्सों में आज भी जारी है।
इस तरह इत्र की महक ने धीरे-धीरे पूरे विश्व को अपने आगोश में ले लिया और ये सौंदर्य प्रसाधनों में सबसे प्रिय व कीमती हो गया। इसकी मदहोशी का आलम यह है कि इस पर कविता, गजल, नज्म सब रचा जाने लगा। किसी शायर ने कहा है-
“तारीफ अपने आप की करना फिजूल है,
खुशबू खुद बता देती है, कौन सा फूल है।”
इत्र में मानवतावाद और समरसता का मूल मित्र छिपा हुआ है। इत्र न केवल शीशियों में कैद रहता है बल्कि ढक्कन खुलते ही हवा में विलीन होकर परिवेश को इत्रमय कर देता है। दिखायी न देकर भी हर जगह, हर कण में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है। इस संदर्भ में डॉ अवधेश कुमार अवध का एक शेर प्रासंगिक हो जाता है-
इत्र बनकर फ़िजाओं में फैलो अवध,
ये धरा ये गगन सब तुम्हारे ही हैं।
— नीति सिंह प्रेरणा