आरंभ
जहाँ बसती कायरता हृदयों में, अधर्म का वास होता है
वहीं पर शौर्य जन्म लेता, वहीं वीरता का विकास होता है
जो भूखंड प्रचंड वह्नि से धू- धू कर आज देखो! जलता है
वहीं अंकुर वृक्ष का बनकर कोंपल नवीन एक फलता है।
मरूस्थली में ही निराशा की, आशा सरिता अब बहेगी
जो दमित शोषित वंचित प्रजा, क्रान्ति शब्द वही कहेगी
अन्याय के प्रासाद को ही न्याय का चक्रवात सहना होगा
अताताइयों की मूर्तियों को सारी, टूटना और ढहना होगा।
भय के साम्राज्य में ही साहस की प्रखर जयजयकार होती है
विध्वंस के रौरव में ही गुंजित सृजन की नयी झंकार होती है
मानव अपने भीतर की दानवता को सर्वप्रथम आज मारेगा
इस युग के धर्मयुद्ध में, एक बार फिर अनय धर्म से हारेगा ।
तमपूर्ण रात्रि की कलिमा के पश्चात,आएगा सूर्य प्रखर
नायक आ कर कोई, पूरा करेगा धर्म का शेष जो समर
स्वाभिमान मानव का दमन के समक्ष नहीं पुन: झुकेगा
हुआ जो आरंभ, यह प्रचंड शंखनाद नहीं कहीं रूकेगा ।
शौर्य और पराक्रम मानव का, कबतक रहता है बंधन में ?
यह चेतना जो थी सुप्त युगों से, प्रबल हो रही क्षण क्षण में
पुन: कोई एक क्रांतिदूत आकर संदेश यह चतुर्दिक फैलाएगा
लगता है आज कृष्ण कोई फिर से कारावास में ही आएगा ।
— क्षितिज जैन “अनघ”