लघुकथा

रक्षक के बने भक्षक

मीता चीख चिल्ला रही थी, रोते हुए  राम की लाश से लिपटे जा रही थी। सब उसको सांत्वना देने लगे, “मीता संभालो अपने आप को,  ये सब कैसे  हुआ, पड़ोस की आंटी  बोली।”

क्या बताऊं आंटी दिन -रात मरीजों की सेवा में लगे हुए थे, कहते थे मैं इस तरह अपने देश को इस कोरोना से हारने नहीं दूंगा इस आपदा से हम सबको मिलकर ही निपटना है। अब तो दिन- रात वहीं अस्पताल में रहते थे, कहते थे जब सब ठीक हो जाएगा  तब खूब आराम से सोऊंगा।

अरे  पन्द्रह दिन पहले की तो बात है, राम  ने बचपन के दोस्त रहीम  को फोन कर के मना किया कि घर से बाहर मत जाना।
नहीं माना वो,  बुखार हुआ उसे, दवा लेने भी नहीं जा रहा था, राम ही ले गए उसे जबरदस्ती अस्पताल। चैक कराया तो कोरोना निकला, वहीं रखा अस्पताल में, दिन – रात सेवा करने लगे। पर वो अहसान फरामोश  कल जब उसको दवा देने गए तो राम के मुंह पर थूक दिया।
आज सुबह फोन पर बताया राम ने घबराए  हुए थे।
“रहीम ये क्या किया, मैं तो तुम्हारी जान बचाने के लिए दिन- रात तुम्हारी सेवा कर रहा हूं।”
“और  मैं  तुम्हें मारने के लिए ही खुद संक्रमित हो कर आया हूं।”
“यही हमारी दोस्ती थी।”
“कैसी  दोस्ती , अब तो तुम सब का अन्त  करेंगे हम।”
“रहीम तुम एक राम को मार सकते हो, लेकिन मेरे हिन्दुस्तान का हर शक्स राम है, एक राम के चले जाने से ये मुहिम रूकने वाली नहीं, तुम एक रक्षक का भक्षण करोगे तो करोड़ों रक्षक और पैदा होंगे।”
सब रहीम को भला बूरा कह रहे थे, किसी ने कहा पुलिस को इत्तला कर दो, एक ने बताया कि रहीम तो भाग गया वहां से,
“लेकिन कब तक भागेगा? पुलिस ढ़ूँढ़ रही है, जल्द ही पकड़ा जाएगा।”

— प्रेम बजाज

प्रेम बजाज

जगाधरी (यमुनानगर)