ग़ज़ल
छलनी यारों के करम से है सीना अपना
पहरेदारों ने ही लूटा है दफीना अपना
धोखेबाज़ निकले जिनकी खातिर हमने
एक कर दिया था खून-पसीना अपना
आगे बढ़ने देता है न डुबोता है हमें
ये किस गर्दाब में फंसा है सफीना अपना
जवाब देने से पहले ये सोच लेना तू
तेरी हाँ-ना पे टिका है मरना-जीना अपना
जिसे नाज़ों से सौंपी थी सल्तनत दिल की
उसी ने चैन-ओ-सुकून है छीना अपना
— भरत मल्होत्रा