लेखनी
लेखनी तुम क्यों रुकने लगी हो,
क्या तुम्हें शब्द नही मिलते
या समाज की कटुता ने
तुम्हें भी निशब्द कर दिया है ।
तुम्हारी उमंगों को क्या हो गया ?
घिसटते समाज ने तुम्हें भी
अपंग तो नही बना दिया
नहीं तुम उमंग -हीन नही हो सकती
प्रेमचन्द की लेखनी प्रखर से
प्रखरतर होती गई थी ।
कबीर की वाणी की तरह,
निडर निर्भीक सेनानी -सा ।
लेखनी तुम्हें क्या हो रहा है?
तुम शिथिल -सी हो चली हो,
रुको मत निज गति को संभालो ,
निज कर मे नित नई ऊर्जा सहेजो ।
तुम तो रचनाकार का अनुपम हृदय हो,
उदासीन हो जाओगी यदि तुम
सृष्टि का लावण्य ही
फीका पड़ जायेगा
तुम कभी भी हार नही सकती,
न हारी हो कभी किसी भी काल मे
तुम्हारे हारते ही जीवन प्रकृति
दोनों ही हार जायेंगे ।
तुम बढ़ो आगे ,बढ़ती ही रहो ,
झकझोर दो इस खोखले समाज को
नवचेतना ,नवजागृति भरो संसार मे
फूँक दो नवमंत्र नवसंचार दो ।
— सरला सिंह “स्निग्धा”