ग़ज़ल
ये सोंच के दर पे आए थे अपनों से बगावत ठीक नहीं
हंस भी ना सकूं रो भी न सकूं इतनी भी मोहब्बत ठीक नहीं।
मत होश गवा ए दिल अपना कोई साथ न देने आएगा
पा भी ना सकूं खो भी न सकूं इतनी भी चाहत ठीक नहीं।
खुदा बनाया सजदा कि वह पत्थर था पत्थर ही रहा
टूट के दिल यह कहता है इतनी भी इबादत ठीक नहीं।
ये दर्द जलन आंसू और आहे तू कुछ तो ले कर जाता
सब मुझको ही सौंप दिया इतनी भी शराफत ठीक नहीं।
मेरे मन का पंछी उसने आंखों में अपनी कैद किया
जी भी न सकूं मर भी न सकूं इतनी भी हुकूमत ठीक नहीं।
कहीं राह भटक ना जाएं हम महफिल में ‘जानिब’ छोड़ दिया
रह भी न सकूं कह भी न सकूं इतनी भी हिफाजत ठीक नहीं।
— पावनी जानिब सीतापुर