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दिव्य महामंत्र: अनाहद ओमकार

दिव्य महामंत्र: अनाहद ओमकार
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एक साधारण मनुष्य जिसके बल पर दिव्य शक्तियों को प्राप्त कर लेता हो, जिसकी अल्प साधना मात्र से ईश्वरीय शक्तियाँ जिसके समक्ष उपस्थित हो जाती हों, तन के तार जिसकी नाद से झंकृत होने लगते हों, ब्रह्माण्ड की शक्तियाँ अष्ट सिद्धियों प्राप्त होने लगती हों, तब संसार उस दिव्यता के समक्ष नतमस्तक हो जाता है। वह एक मात्र नाद है, एक ध्वनि है,  जिसे एक शब्द दिया गया ओमकार। ’’नाद का मुख्य अर्थ है आवाज। परन्तु हमारे यहाँ के आध्यात्मिक और दार्शनिक क्षेत्रों में ब्रह्म के स्वरूप और सृष्टि का मूल प्रवर्तक माना गया है। कहा गया है कि आरंभिक शून्य में एक प्रबल विस्फोट हुआ, जिसके नाद से सृष्टि के आरंभिक रूप की रचना हुई। हठ योग में कहा गया है कि मनुष्य की अंतरात्मा में निरन्तर एक प्रकार का सूक्ष्म शब्द गूँजता रहता है जो वस्तुतः ब्रह्म का अंश है। एकाग्रचित होकर बराबर अभ्यास करते रहने पर जब नाद सुनाई पड़ने लगता है तब ब्रह्म से साक्षात्कार होता है। विभिन्न विद्वानों ने ओमकार  को प्रणव का पर्याय शब्द माना है और ’’त्रिदेव (ब्रह्मा,विष्णु, महेश) के रूप में स्वीकार किया है।’ओऊम्, ओंकार,ब्रह्म, ईश्वर। पवित्र घोष अथवा शब्द प्रतीक पवित्र अक्षर है। यह शब्द ब्रह्म का बोधक है। ब्रह्म से ही विश्व उत्पन्न होता है। ब्रह्म में ही स्थित रहता है और  अंत में ब्रह्म में ही लय हो जाता है। इस प्रकार ऊँ सम्पूर्ण विश्व की अभिव्यक्त, स्थिति, और प्रलय का द्योतक है।’’ ओम् के रूप में स्पष्ट करते हुए वामन शिवराम आप्टे ने अपने संस्कृत हिन्दी शब्द कोश में लिखा है कि ’’ओम् पावन अक्षर है जो वेद-पाठ के आरंभ और समाप्ति पर किया गया पावन उच्चारण या मंत्र के आरंभ में बोला जाता है।’’
ओमकार शब्द नहीं है; हो ही नहीं सकता, क्यों कि शब्द का अर्थ होता है लेकिन ओमकार अर्थातीत है, अर्थ से परे है। मनुष्य संसार और संसार से इतर को समझने के लिए शब्दों का सहारा लेता है, इसलिए हमने इसे भी एक संज्ञा दे दी ओमकार। किन्तु इसे शब्द कहना कदापि सार्थक न होगा। ओमकार नाद ही है वह भी अनाहत। अनाहत नाद वह नाद होता है जो बिना किसी आहत के उत्पन्न हुआ हो। इसके अतिरिक्त सभी ध्वनियाँ दो वस्तुओं के  आहत से, टकराहट से  पैदा होती है। जैसे ताली की ध्वनि।
दोनों हथेलियों का आहत है। घण्टे की ध्वनि दो धातुओं की टकराहट है। लेकिन ओमकार अनाहत है, जिसमें कुछ भी आहत नहीं।  मुख के अवयव और अधरों  के प्रयास सहित उच्चरित ओमकार ध्वनि कृत्रिम मात्र होगी। विशुद्ध नाद नहीं होगा। ओमकार ध्वनि-तरंगे अपने केन्द्र से जितने वृत्त में प्रसारित होती हैं वह वर्तुल सकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है और उसके सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक जीव की नकारात्मकता सहज तिरोहित हो जाती है। यही कारण है कि भारत में सिंह और मृग एक घाट पर पानी पीतेे थे। भारत में कई धर्म पैदा हुए। मत मतान्तर को लेकर भेद हुए, इष्ट को लेकर मतैक्य नहीं रहे ।किन्तु ओमकार पर कोई भेद नहीं क्यों कि उन्हें पता है कि यही है जो सत्य है ईश्वर से मिलन का माध्यम है, अज्ञान के तम को तिरोहित करने वाला  प्रकाश पुंज है। ओमकार सब के लिए ग्राह्य है, स्वीकृति है सहमति है, शक्ति का आधार है। यहाँ कोई विरोध नहीं। ओमकार महामंत्र है, शेष सभी मंत्र हैं। इसीलिए सभी मंत्रों से पूर्व ओमकार का आदर है। ओमकार सूर्य-आभा है, खिलते पुष्पों का सौरभ है, मकरंद है, सृष्टि का प्राण है, चर-अचर में विद्यमान है।
लोग धर्म के नाम पर विभाजित हो गए किंतु अपने अंहकार को बनाए रखने के लिए ओमकार के मूल को न पकड़ कर उसके स्वरूप को बदल कर स्वीकार करते गये, क्यों कि उन्हें पता है कि यही वो चिंगारी है जिससे अज्ञान की कोठरी में ज्ञान का दीपक जलाया जा सकता है। आचार्य रजनीश ओशो ने ’’ओमकार का विश्लेषण करते हुए लिखा कि मुसलमान अपनी इबादत के अंत में एक शब्द का उच्चारण करते है, आमीन। इसके उच्चारण किए बगैर उनकी इबादत पूर्ण नहीं होती। ये आमीन क्या है? ओम् का ही रूप है। अंग्रेजी में तीन शब्द हैं ओमनीप्रजेंट, ओमनीपोटेंट, ओमनीसाइंट। अंग्रेजी भाषाविद् बड़ी कठिनाई में पड़ते हैं क्यों कि वे इन शब्दों का मूल नहीं खोज पाते। ये शब्द बड़े अनूठे हैं। ओमनीसाइंट का अर्थ होता है जिसने सब देख लिया, लेकिन ओम कहाँ से आता है, वह ओम् का ही रूप है। जिसने ओम देख लिया उसने सब देख लिया। ओमनीप्रजेंट का अर्थ है, जो सब जगह मौजूद है लेकिन ओमन कहाँ से आता है? वह ओम का ही रूप है। ओमनीपोटेंट का अर्थ है जिसके पास सारी शक्ति है। लेकिन मतलब इतना ही है जिसके पास ओम की शक्ति है जिसने ओम को पा लिया, सब पा लिया। जो ओम में डूब गया, वह सर्वशक्तिशाली हो गया। ये ओम बड़ा अनूठा शब्द है।’’ नानक ने कहा एक ओमकार सतनाम। ओमकार एक मात्र ध्वनि है जो पैदा नहीं हुई। सम्पूर्ण संसार इसमें समा जाता है। कृष्ण कहते हैं कि जिस दिन कोई तरंग नहीं उठेगी, सब शून्य होगा, उस दिन यही ओम की ध्वनि सुनी जाएगी। वह ध्वनि मैं ही हूँ। जब  माण्डूक्योपनिषद् में भी ओमकार/प्रणव / ओम् अक्षर का जो विश्लेषण किया गया है वहाँ भी ओमकार को ब्रह्म माना। ओमित्येतदक्षरमिदँ् सर्व तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोंकार एव। यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योंकार एवं। ऊँ अक्षर को अविनाशी परमात्मा स्वीकारा है। ब्रह्म के पूर्ण रूप का तत्व समझाने के लिए प्रणव की अ, उ, म तीनों मात्राओं  के साथ  और मात्रा के रहित ब्रह्म परमात्मा के एक-एक पाद की रचना की गयी है। जो तीनो कालों से भिन्न है वही ओमकार है। कारण, सूक्ष्म और स्थूल, इन तीनों भेदोें वाला जगत् और इसको धारण करने वाले इस अंश की अभिव्यक्ति होती है मात्र उतना ही परमात्मा का स्वरूप नहीं है वल्कि उससे भी अलग है।

अंततः एक ही बात सीखने की है, समझने की है, विचारने की है, उतारने की है- ओमकार  प्राणों से उठने वाली वह अलौकिक गूँज है, जिसके गुँजार से तन के तार वीणा के तारों की भाँति झंकृत होने लगते हैं। सामवेद का संगीत और दीपक राग स्वतः आरम्भ हो जाता है। ओमकार अनाहत नाद है। यह नाद अल्प साधना से ही स्वतः ही सुनायी देने लगता है। ओम के उच्चारण से पूर्व इंसान श्वास अधिक मात्रा में खींचता है तो भीतर जाने वाली प्राणवायु भीतर की तमाम विषैली वायु का उच्चारण करते समय बाहर निकालता है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से लाभप्रद है। आओ हम मिलकर आह्वान करें उस तत्व का ,उस अस्तित्व का उस रकार का, अकार का, मकार का और ओमकार का।

डाॅ. शशिवल्लभ शर्मा

डॉ. शशिवल्लभ शर्मा

विभागाध्यक्ष, हिंदी अम्बाह स्नातकोत्तर स्वशासी महाविद्यालय, अम्बाह जिला मुरैना (मध्यप्रदेश) 476111 मोबाइल- 9826335430 ईमेल[email protected]