हम इसे सामाजिक होना क्यों कहेंगे ?
हम इसे सामाजिक होना कैसे कहेंगे ? जातियों में विभाजन करना तो असामाजिकता है ! सक्षम देह्यष्टि यानी शारीरिक कद-काठी से मजबूत व्यक्ति, जो रक्षार्थ व क्षात्र धर्म अपनाते हैं, वह क्षत्रिय नहीं तो क्या है ? राजा के पुत्र राजपूत, अगर राजा अनुसूचित वर्ग से भी हो, फिर भी…… उद्धरण कहावत लिए है कि मारवाड़ से एक तैलिक बंधु सिर्फ लोटे लेकर कलकत्ता पहुंचते हैं और वे वहाँ कुछ बरस रहकर मारवाड़ी सेठ बन जाते हैं ! सिख धर्म में पंचप्यारे क्या शूद्र नहीं थे ? स्पष्ट करूँ तो सम्प्रदाय तो कर्म के आधार पर है, यथा– वाणिज्य में आया, तो बनिया; कुंभ बनाया, तो कुंभार या कुम्हार; वहीं दक्षिण भारतीय रामाराव तो संभवतः यायावर हैं ! अंग्रेजी में तो पेशे के आधार पर ही जाति का नाम है ! हिंदी उपन्यास ‘मैला आँचल’ में कुर्मी, कहार, धानुक इत्यादि पिछड़ी जातियों को भी क्षत्रिय कहा गया है । हिंदी उपन्यास ‘पुनर्नवा’ में राजभर या राजभट जाति को कायस्थ बताए गए हैं, जबकि आरक्षण-सूची में ये पिछड़ी जाति हैं, जबकि स्वामी श्रीधर रचित पुस्तक ‘अमीघूँट’ के अनुसार राजभर के अपभ्रंश ‘राजा भर’ तो जाति के दुसाध थे । चौधरी तो ‘डोम’ व ‘भंगी’ की भी उपाधि है और ब्राह्मणों में भी चार वेदों को कंठाग्र करनेवाले को चतुर्वेदी या चौबे कहा गया है। ध्यातव्य है, चौबे ब्राह्मण मुरब्बे मिठाई के बड़े प्रेमी होते हैं, तो कुम्हार भी मुरब्बे के प्रेमी हैं, क्योंकि वे गीली मिट्टीयुक्त हाथों से भी सूखे मुरब्बे खा लेते हैं । चूँकि मुरब्बा ‘कुम्हड़ा’ का बनाया जाता है, एतदर्थ कुम्हड़ा का ही अपभ्रंश ‘कुम्हार’ है। तभी तो श्री रामकृष्ण परमहंस शूद्र को सबसे शुद्ध और महासमुद्र कहा करते थे ?