ग़ज़ल
दूषित न कर इस गंगा नदी को।
बहाती जो अमृत नमन जिंदगी को।
सूखे पहाड़ों से जो बह रही हैं,
भुला मत प्रकृति की परम वंदगी को।
ये झरने ये नदियाँ ये झीलें हजारों,
हैं जीवंत कविता औ’शायरी को।
अभागा न बन मत बर्वाद कर तू,
नमन कर हजारों इस सरज़मी को।
गाई हैं रब ने ये कविताएँ मंजुल,
गुनगुना के सुर दे इस गायकी को।
‘शुभम’जान नेमत प्रभु की अनेकों,
भुला मत प्रकृति से मिली रौशनी को।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’