गीतिका/ग़ज़ल

छोड़ भी दे

चाह आसरों की रखना छोड़ भी दे
सहारा औरों का करना छोड़ भी दे
खुश रखना खुद को तेरी जिम्मेदारी
ये रोना धोना सिसकना छोड़ भी दे
चांद का झूला महज किताबी कहानी
जज़्बातों में बहके रहना छोड़ भी दे
होते नहीं ख्वाब ख्यालों से मुकम्मल
लकीरें ताबीजें आजमाना छोड़ भी दे
बेमतलब के रिश्ते हुए गुजरा जमाना
बेमकसद घुलना मिलना छोड़ भी दे
दो पल भी दुनिया नहीं याद करेंगी
तू ख्वाइशें दफन करना छोड़ भी दे
नकाबपोशी का चलन है जोरों पर
खामख्वाह चेहरे पढ़ना छोड़ भी दे
झुकती है दुनिया शोहरतों से पलाश
अब पत्थर नींव का बनना छोड़ भी दे

डॉ. अपर्णा त्रिपाठी

मैं मोती लाल नेहरू ,नेशनल इंस्टीटयूट आफ टेकनालाजी से कम्प्यूटर साइंस मे शोध कार्य के पश्चात इंजीनियरिंग कालेज में संगणक विज्ञान विभाग में कार्यरत हूँ ।हिन्दी साहित्य पढना और लिखना मेरा शौक है। पिछले कुछ वर्षों में कई संकलनों में रचानायें प्रकाशित हो चुकी हैं, समय समय पर अखबारों में भी प्रकाशन होता रहता है। २०१० से पलाश नाम से ब्लाग लिख रही हूँ प्रकाशित कृतियां : सारांश समय का स्रूजन सागर भार -२, जीवन हस्ताक्षर एवं काव्य सुगन्ध ( सभी साझा संकलन), पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनायें ई.मेल : [email protected] ब्लाग : www.aprnatripathi.blogspot.com