कविता-पुस्तक ‘ये उदास चेहरे’ की समीक्षा
‘ये उदास चेहरे’ के प्रकाशक ‘कविता कोसी, ग़ाज़ियाबाद’ है तथा प्रकाशन वर्ष 2011 है। साहित्य अकादमी के पूर्वी सचिव व वरिष्ठ समीक्षक डॉ. देवेन्द्र कुमार ‘देवेश’ ने इस संग्रह पर लिखा है । यथा- कवयित्री के विशिष्ट शब्द-प्रयोग तथा नारी अस्मिता की रक्षा के लिए उनकी चेतना और रोष तो संगृहीत कविताओं में बिम्बधर्मी प्रयोगों के कारण अनेक कविताएँ ढेर-सारी गझिन अभिव्यक्तियों का पुलिंदा-सा प्रतीत होती हैं, जो संभव है किसी अन्य कवि द्वारा उसकी शिल्प-शैली में कई-कई कविताओं में संप्रेषित की जातीं । लेकिन वस्तुतः विश्वफूल का अपना ही एक विशिष्ट काव्य-शिल्प है, जो हिंदी के प्रचलित कविता-शिल्पों से भिन्न है और इसीलिए न केवल हमें चौंकाता है, बल्कि कभी- कभी असहज स्थिति में भी डालता है । यह प्रयोग कविता के पाठ-प्रवाह को बाधित करता है और कहीं-कहीं अभिव्यक्ति को उलझाता भी है । नारी-अस्मिता की विशेष चिंता विश्वफूल की कविताओं में नज़र आती है ……. ऐसी कविताएँ पौराणिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, समसामयिक व्यक्तियों-प्रसंगों के ढेर सारे सन्दर्भों को एक विस्फोट की तरह हमारे सामने रखती हैं और इस विस्फोट में मानो अपनी सहज अभिव्यक्ति को दबा हुआ-सा महसूस करते हुए कवयित्री ‘लाउड’ हो जाती हैं और अश्लीलता की श्रेणी में रखे जानेवाले शब्दों का भी बेबाकी से प्रयोग करती हैं।
एक कविता में कवयित्री ने मुहावरों के सहज प्रयोग और निस्पृह अभिव्यक्ति प्रकट की हैं-
“मित्रों ! सुनो !!
कौन है यहाँ ?
दूध की धुली / किस हाथ में दही नहीं जमता,
दीया बिना बाती / कली बिन सोलहों श्रृंगार,
यादों के रोशन चेहरे,
अपरिचित स्वप्न/मृत स्वप्न,
इनमें भी श्रोत बन पाई हूँ,
कचरे के गड्ढे से निकलकर-
गूँगे की आवाज बन पाई हूँ।”
इसप्रकार से संग्रह की 35 कविताएँ, यथा– ये उदास चेहरे, वीर शहीद, लड़कियाँ, हैरी अब नहीं आएगा, जननायक की स्मृति में, मैं शब्द भी नहीं हूँ, वो तय था- वो तय है, कुत्ते तो नहीं – इधर उधर मुँह मारते हो, मेरी ज़िन्दगी तुम हो, मैं- नग्न माँ – बलात्कारी पिता, मनुष्य के लिए सवेरा, तड़प, खाने को बेर मिले, इक्कीसवीं सदी के कैलेण्डर में, की कटिहार एक शहर है, विधवा- एक परिभाषा, एक कवि मुक्तिबोध, एक सूनामी – एक चांस, अशब्द हूँ इसलिए, देवी अहिल्या, कि स्वार्थों से घिरा इक वानर हूँ, अप्रस्तुत वेदना, अतीत-प्रसंग, कैक्टस, रिश्ते का मूल्यांकन-इस बहरे समय में, वेश्या ही बनाई होती, मेरे सपनों का महल, लिफ़्ट नहीं माँगूँगा, सभी चले गए, कहीं ऐसा न हो, क्या देखती नहीं मानव की आँख, भिखारी के पास मोबाइल, मैं हूँ…, पंछियों की प्यास और 35 वें कविता- नए अंदाज़ की होली।
प्रख्यात कवयित्री स्वर्णलता विश्वफूल की एक कविता ‘चाक पर चढ़ी बेटी’ च एक महत्वपूर्ण रचना है, द्रष्टव्य –
“उस स्त्रीलिंग प्रतिमा,
यौवन-उफनाई प्रतिमा को
एक पुरुष ने खरीदा
और सीमेंटेड रोड पर
पटक-पटक
चू्र कर डाला ।
प्रतिमा के चूड़न को–
सिला में पीस डाला,
और अपनी लार से
मिट्टी का लौन्दा बनाया,
उसे चाक पर चढ़ा दिया,
कहा जाता है–
तब से बेटी
चाक पर चढ़ी है ।”