प्रेम
वो मुक्तक है मेरी विराम चेतना का
उदघोषक है मेरी सतत नीरवता का
प्रकाश है अविरल बहती ऊर्जा का
गीत है मेरी रगों में बहती सरगम का
वो प्रेम है मेरी कविता के अल्फाज का
वो धुन है मेरे शब्दों में तैरती तरंग का
वो वेदना है दुनिया की अनजानी सी
वो संवेदना है जैसे थकित पथिक की
वो जवानी है किसी अल्हड़ बाला की
वो सरलता है बच्चे की निर्बाध हँसी की
वो दर्द है ज्यूँ किसी बिछुड़े हुए प्रेमी का
वो अहसास है दिल में मचलते हुए प्रेम का
वो लकीर है किसी शर्त की गंभीरता की
वो उत्साह है दर्द में भीगे हुए जज्बात का
वो प्रेम ही तो है जो उलाहना है प्रेम का ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़