ग़ज़ल
जिंदगी के नाम पर बस यन्त्रवत आते हैं लोग
उम्र जीते हैं मशीनी और चले जाते है लोग
बेबसी के दौर में है एक सा सबका वज़ूद
बीच घुटनो के महज़ चेहरा छुपा पाते हैं लोग
दलदली सारी व्यवस्था उग रही पी कर लहू
सूखते तालाब में फ़ूलों से मुरझाते हैं लोग
क्यों कभी फरियाद पर उनकी कहीं होगा अमल
पंगु शासन तंत्र है बेकार चिल्लाते है लोग
व्यावसायिक हर कला बिकने लगी है हर विधा
गीत ये सच्चाई के कब इस तरह गाते हैं लोग
है हमारे दम से कायम सारी दुनिया मैं बहार
पाल कर बस ये वहम दिल अपना बहलाते है लोग
जिसने ये दुनिया बनाई देखिये उसका कमाल
सामने शीशे के जाकर खुद पे इतराते हैं लोग
— डॉ मनोज श्रीवास्तव