एकतरफा प्रेम
पागल हो क्या ?
एकतरफा प्रेम ज्यादा नहीं टिकता।
धर्म, जाति क्या तुम्हें कुछ भी नहीं दिखता?
पाँव रोक लो अपने!
फेर लो नज़रे।
सदा कहा हुआ ही माना उसने,
इस बार भी वही किया।
सोच-समझ कर धूम-धाम से,
उसे दान कर दिया गया।
बरसों बाद नज़र आई वो
उलझे थे केश पर रिश्तों में पड़ी
गाँठे, आहिस्ता से खोल रही थी।
पैरों में बिवाइयां लिए,
सब के पीछे डोल रही थी।
बसन्त के मौसम में, पतझर के
पीले पत्तों सी झर रही थी।
चेहरे पर हल्की झुर्रियां, सबकी
फरमाइशें पूरी कर रही थी।
अब नियति कहो या कुछ और…
वो आज भी सबसे,
एकतरफा प्रेम ही कर रही थी।