भारतरत्न अटल से रूबरू
मंदिर से आती शंख-ध्वनि, मस्ज़िद से आ रही अज़ान, गुरद्वारे के घंटे और गिरजे से आती ‘हैप्पी क्रिसमस डे’ की अतल ध्वनि-प्रतिध्वनियों के बीच ‘अटल’ का जन्म होना नए युगयात्रा में नींव पड़ना कहा जाएगा। 90 के दशक में अथवा 1989 में जब वे प्रधानमन्त्री नहीं बने थे, संभवत: तब लोकसभा में वे प्रतिपक्ष के नेता होंगे, लाउडस्पीकर में उनके देशभक्ति से ओत-प्रोत भाषण सुन मैं बौराया करता था, तबतक दैनिक ‘आज’ में ‘बालकवि गोष्ठी’ का मेरे द्वारा प्रेषित समाचार छप चुका था और साहित्यिक पत्रिका ‘भागीरथी’ ने मेरी देशभक्ति कविता ‘तुम पक्के हिन्दुस्तानी’ छाप चुका था और मेरे अंदर अपना ‘पत्र’ निकालने का हिलोरे मारने लगा था, इसी बीच मैं जयपुर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘आमख्याल’ के संपर्क में आया था। यहां कटिहार में पाठक सर, ज़ख़्मी सर, सरस जी, प्रदीप दूबे जी, देवेश जी इत्यादि के बीच भी विशुद्ध हिंदी के अखंड-जाप व महान नाम ‘अटल बिहारी वाजपेयी’ के ‘भाषण’ को लिए ‘सिक्का-छाप’ जमाए हुए था । अपनी बुआ के यहाँ मैं सूजापुर गया हुआ था, संभवत: बरारी, काढ़ागोला या कुर्सेला में या यहीं कहीं अटल जी के कार्यक्रम के अनाउंसमेंट हो चुका था और मैं तब बौद्धिक बच्चा किसीतरह उनके निकट पहुँच गया, जो कि इस अद्भुत भाषणबाज़ जीव को मैं काफी निकट से देखना चाहता था और हड़बड़ाहट में बगैर प्रणाम-पाती के पूछ बैठा- ” दद्दू, आपके नाम ‘अटल’ ही क्यूँ है ?” उस समय सुरक्षागार्ड की क्या स्थितियाँ थीं, अभी भिज्ञ नहीं हो पा रहा हूँ ! खैर, उनके जवाब से सभी संतुष्ट हो गए थे कि “मेरे माँ-बाप ने मेरा नाम ‘अटल’ यूँ ही नहीं रखा है । मेरा मकसद यह है कि मैंने आजतक जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, अवश्य वह पूरी होकर रही है ।” जब पहलीबार वाजपेयी जी ने भारत के 11 वें प्रधानमन्त्री के रूप में शपथ लिया था, तब मैं ‘आमख्याल’ के कुछ अंक-स्तंभों के सम्पादन कर चुका था, जिसे लेकर कालान्तर में ‘लिम्का बुक ऑफ़ रिकार्ड्स’ ने मुझे देश के दूसरे सबसे युवा संपादक होने को लेकर पत्र भेजा था । इसी साप्ताहिक के 30 मई 1996 अंक में उस सन्देश को शामिल करते हुए ‘आमख्याल’ की कवर-स्टोरी “भारत का दूसरा विक्रमादित्य : अटल बिहारी वाजपेयी” के रूप में मेरा आलेख छपा।आदरणीय अटल बिहारी वाजपेयी आदर्श-स्तम्भ के ध्रुवतारा, ज्ञान के पवित्र-संगम, शुभ्र हिमालय से भावों को समेटे धीर-गंभीर एवम् तेजस्वी वीर पुरुष हैं । ऐसे मर्द तो आँधियों में भी दीपक जला लेते हैं । यदि ऐसे कर्मठ व्यक्तित्व एवं कृतित्व के धनी भारत जैसे धर्मदेश के मसीहा न बने, तो कौन बनेंगे ? यह देश का सौभाग्य है कि उनकी संस्कृति की अक्षुण्ण परम्परा की इज़्ज़त रखनेवाले कवि, पत्रकार व साहित्यकार प्रधानमन्त्री बने हैं।