दूध की भगौनी (कहानी)
दूध की भगौनी (कहानी)
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लॉक डाउन में ऑफिस बन्द होने के कारण मोना घर पर फुर्सत में ही थी । टीवी देखने में , सोशल मीडिया से ही वक्त गुजर रहा था। हसबैंड का दूसरे शहर के थाने में ट्रासंफर हुआ तो उसे छुट्टी तो क्या मोबाइल से बात करने की भी फुर्सत नहीं है। एक बेटा था, ग्यारहवीं क्लास के एग्जाम दिये थे उसने। पापा की शिफ्टिंग कराने के लिए साथ चला गया था, तब से वहीं ही है। आज मोना ने मुझे धर्मवीर भारती का उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ पढ़ने के लिए फोन किया। मोना मेरे घर से कुछ दूर किराये के मकान में रहती थी। उसको हिंदी उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था। चार वर्ष पूर्व उसे किसी ने बताया कि मयंक हिंदी के प्रोफेसर हैं, तो वह मेरे घर आई । तब से उससे मेरी केवल साहित्यिक मित्रता थी, जब भी आती किसी न किसी हिंदी कहानी, उपन्यास पर बैठकर घण्टों समीक्षा करती थी। बोली घर कोई है नहीं, मैं आ नहीं पाऊंगी। आप जब भी बाजार निकलें, मुझे कॉल कर देना मैं गेट से ले लूँगी। दो दिन बाद मुझे दवा लेने जाना था ,मैं शाम चार बजे चाय पीकर उपन्यास लेकर घर से निकला , तो मैंने मोना को कॉल किया , शायद नेटवर्क प्रॉब्लम के कारण कॉल कनेक्ट नहीं हुई । मैंने उसके दरवाजे पर पहुँचकर बेल बजाई। उसने दरवाजा खोला ,। आज उसका मुख कुछ उदास सा था … मैंने पूछा ..मोना क्या हुआ? सब ठीक तो है..बोली बैठो …..मैं पानी लाती हूँ। सुंदर सुसज्जित कमरे में सोफे पर बैठकर मैंने अख़बार उठाया औऱ देखने लगा । वह शायद किसी गहरे अवसाद में थी, मैंने हाथ में पानी का गिलास लेते हुए फिर पूछा , मोना! क्या कोई समस्या है ?
वह अपनी डबडबाई आँखों को दुपट्टे से दबाते हुए कहने लगी नहीं ..नहीं… कुछ नहीं बस.यूँ हीं…
मैंने फिर कहा मोना, कुछ तो बात है, आज मैं तुम्हें पराया लग रहा हूँ तो कोई बात नहीं…मत बताओ,
बोली अरे ..नहीं..मयंक तुम भी ना..
अगर तुम्हें ही पराया समझने लगूँगी तो फिर अपनों की परिभाषा क्या होगी…??
चाय बनाती हूँ..कहते कहते अंदर जाने लगी..
मैंने कहा, रुको मोना,मैं पीकर आया हूँ !! तुम बैठो
मैं निकलता हूँ..
बोली अरे बैठो न, इतने दिनों में तो आज आये हो..
चले जाना !! आज बैसे भी मैं ऑफ हूँ
मैंने कहा तुम बता ही नहीं रही हो….क्या बात है !!
मोना गहरी सांस लेते हुए बोली
मयंक! आज बैठे-बैठे पता नहीं क्यों पुरानी यादें आने लग गईं । वे कष्ट भरे दिन जब पति ने दिन और रात -रात भर कोल्ड स्टोर पर पल्लेदारी करते हुए मुझे पढ़ाया और खुद पढ़े। भगवान की कृपा है कि वो पुलिस में भर्ती हो गये और फिर मेरी पढ़ाई के लिए मुझे उत्साहित करते रहे । वो तो माँ की जिद थी जो गाँव के स्कूल में आठवीं तक पढ़ ली, नहीं तो पता नहीं ….।
भगवान के यहां देर हैं अंधेर नहीं, परिश्रम का फल मीठा ही होता है मैंने कहा..
थोड़ी देर रुकी… उसने पानी के गिलास को मुँह से लगाया और दो घूँट पीकर हाथ में पकड़े रही।
मयंक! मुझे सरकारी नौकरी तो नहीं मिली, पर तुमने मुझे हिंदी भाषा का जो पाठ पढ़ाया, साथ ही कम्प्यूटर सीखने की जो सालह दी, उससे मुझे टेलीकॉम कम्पनी में प्राइवेट जॉब मिल गया। आज मैं खुश हूँ…
इतना कहकर एक गहरी साँस ली औऱ बोली , मयंक….मेरी जिंदगी बचपन से ही संघर्षों में गुजरी है..
मैंने कहा, मोना!! गोदान तो तुमने पढ़ा है न!!!
बोली मुझे पता है तुम क्यों कह रहे हो. तुम समझलो उतना ही संघर्ष मैंने जीवन मे किया है।
मैं सात वर्ष की थी..मुझे खूब याद है… दादी घर में थी नहीं । अप्रैल का महीना था, दादा जी खेत से लौटे नहीं थे, शाम के पाँच बजे होंगे.. माँ ने बगल में काकी के घर से दूध लाने को कहा , मैं दौड़कर गयी औऱ लौटकर भी जल्दी- जल्दी चल कर आरही थी, आँगन में आते ही देहरी में पैर की ठोकर लगते ही गिर गयी। मेरे हाथ से दूध की भगौनी के छूटकर गिरते ही मुझे माँ ने डांटना शुरू कर दिया। उस समय तो नहीं जानती थी, पर कुछ वर्षों के बाद समझ आ गया था कि वह माँ के हृदय की रोकी हुई आवाज़ , वर्षों पुरानी थी, जो उस दिन निकल रही थी।
लगभग पन्द्रह मिनट में उसने अपनी सारी पीड़ा, क्रोध के कांटे से निकाल डाली । जैसे किसी के शरीर मे कोई फोड़ा पक कर मवाद से भर जाता है औऱ फूटने के बाद निकला हुआ मवाद पास बैठे हुए को भले कितना ही घिनोना लगता हो, परंतु उसको रह-रह कर होने वाले दर्द से राहत मिल जाती है। क्रोध जब दुःख के साथ फूटता है तब मुख से निकलने वाले शब्द किसी कारुणिक उपन्यास जैसे ही होते हैं।
मोना की स्वयं की कहानी को मुझे औऱ जानने की जिज्ञासा हुई। आज वह भी ऐसे बता रही थी मानो खुद के उपन्यास की कथावस्तु मुझे सुना रही हो..
मैंने कहा फिर क्या हुआ मोना??
मुझे आज भी कल की तरह ही याद है.. बचपन की अपनी शरारतें । माँ मुझे रोज काम करने को कहती और मैं उसका कोई न कोई नुक़सान कर देती थी, बस इसी पर मेरी दादी मुझे और माँ को खूब सुनाती थीं । जिस दिन दूध की भगौनी गिरी उस दिन माँ ने मुझे बहुत पीटा। फिर उसी रात को खुद रोते-रोते मुझसे कहती रही…
तू पैदा होते ही मर जाती तो दो चार दिन का दुःख होता । जब से जन्मी है, तब से रोटी का एक निवाला शरीर में नहीं लगा। तेरे जन्म पर तेरी दादी – दादा ने परिवार के कितने ही बुजुर्गों ने न जाने कितनी बार अपने दुर्भाग्य पर रोना नहीं रोया। हर साल रक्षा बंधन पर आकर कितनी ही बार मुझे तेरी बुआ ने नहीं कहा कि भैया की शादी तो पल्लीपार से हो रही थी, पर नसीब में तो यही महारानी थीं । वर्षों के बाद कुछ हुआ वो भी लड़की। गाँव पड़ोस की काकी, ताई , चाची ने कितनी ही बार तेरी दादी को ताने मारते यह नहीं कहा कि पूरे गाँव में केवल तुम्हारे ही घर लड़की हुई है, पिछले एक साल में । तेरे दादा को कहने को तो पूरे गाँव में उन्हें रामायण का ज्ञानी कहते हैं । घर में गीता का पाठ नहीं कर लेते, तब तक अन्न ग्रहण नहीं करते । ऐसा कोई दिन नहीं गुजरा , जिस दिन तेरी शक्ल देखकर यह नहीं कहा हो ‘हट सामने से, चल भीतर।’ न जाने कहाँ से कुलक्षिणी पैदा हो गयी। कभी-कभी दादी के पूजा करते समय तू उनको छू लेती थी तो उसी समय कलंकिनी ने पूजा अशुद्ध करदी, कहकर गंगा जल छिड़कती थीं। नवदुर्गा में नवमी के दिन पूरे गाँव की कन्याओं को भोज करवाया था, सबके खाने के बाद तुझे खिलाने को मुझसे कहा।
माँ बोलते-बोलते और रोने लगी। उसकी हृदय में मानो जमी हुई बर्फ आज सूरज की तेज तपन से आँसू की धारा में बहने लगी हो।
मैं माँ के आँसू उसके ही पल्लू से पौंछते हुए उसकी गोदी में जा बैठी, उसने तुरन्त मुझे अपनी बाहों में भर लिया।
आठ वर्ष ऐसे ही रोते -गाते गुजरे। मैं बड़ी हो गयी, मेरी शादी के लिए लड़का देखा जाने लगा। न जाने कितने गाँव में घर देखे होंगे, लेकिन दादा कहते थे कि पता नहीं किस मुहूर्त में जन्मी है, कोई लड़का नहीं मिल रहा, जिससे बात करो वही लाखों रुपये दहेज में माँगने लगता है। इतना पैसा खर्च करने को नहीं है। हमें भागवत की कथा भी करवानी है जिसमें बहुत पैसा चाहिए।
दादी , भीतर आकर माँ को खूब सुनाती थीं ।
माँ उस रात दीवाल पर टँगे पापा के फ़ोटो को देख रही थी और लगातार उसकी आँखों से आँसू बहे जा रहे थे।
मैं ये सब देखते हुए भी नहीं बोली , क्योंकि मेरे पास बोलने के लिए शब्द ही नहीं थे। बस भीतर ही भीतर घुट रही थी, अपने पैदा होने के दुर्भाग्य के लिए ईश्वर को कोसने के अलावा कुछ नहीं था मेरे पास।
मैंने पूछा , फिर शादी कब कब औऱ कैसे हुई मोना तुम्हारी..?
कुछ दिनों बाद मेरी सगाई तय हो गयी , मुझे बताया कि लड़का शहर में नौकरी करता है, उम्र में थोड़ा बड़ा है। पहले उसकी शादी हो चुकी है। छः महीने बाद उसकी पत्नी मर गयी । लड़के का बाप नहीं है। माँ है, एक बहन थी उसका विवाह हो गया। माँ ने दादी से पूछा खेत -खलियान ?!! तो दादी क्रोध में बोली ..खेत वाले के यहाँ देने को पैसा चाहिए , इसका बाप तो इस नाशमिटी के पैदा होते ही दुनिया से चला गया । इस घर में भी फलदान में देने पड़ेंगे, फिर गांव में भी इतनी बड़ी बात है, उसका भी ध्यान रखना है। दो सौ – तीन सौ आदमी की दावत करनी पड़ेगी। ऊपर से कई चाल-चलन हैं। पचीस-पचास हजार से ज्यादा खर्च होगा। माँ इस सगाई से खुश नहीं थी, उसने कह दिया अपनी लड़की का विवाह वह यहाँ नहीं करेगी। माँ ने जिद की और भीतर कमरे से ही साफ कह दिया कि यह सगाई मुझे मंजूर नहीं है। आप उनको इंकार करदें। दादा ने विवश होकर सगाई तोड़ दी औऱ माँ को दो टूक शब्दों में कह दिया तुझे जहाँ दिखे वहाँ कर इसका विवाह । हमें कोई मतलब नहीं है। बुढ़ापे में भी जीने नहीं दे रही।
कहते-कहते मोना कुछ देर के लिए खामोश हो गयी। मैंने पूछा क्या हुआ मोना…??
बोली मयंक , फिर मेरे लिए लड़का माँ ने खोजा। वह अगले दिन सुबह ही हीरापुर गाँव गयी जो हमारे गाँव खेमरिया से पाँच किलोमीटर दूर था । वहाँ पापा के मित्र थे, गजानन सिंह चाचा। जो घर आते-जाते रहते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों से उन्होंने आना बंद कर दिया था । गाँव औऱ दादा-दादी ने उनको लेकर माँ पर बहुत कुछ सवाल खड़े किए थे। माँ उनके सहयोग से उसी गाँव में उसी दिन मेरी शादी की बात पक्की कर आयी।
लड़का बारहवीं की परीक्षा पास करके कॉलेज में दाख़िल हो गया था। लड़का देखने में सुंदर, कद -काठी से भी ठीक था। खेती तो उसके यहाँ भी नहीं थी। दो भाई थे, एक छोटा , जो दसवी में पढ़ेगा। उसके पिताजी दूसरे की खेती लेकर बटाई पर करते थे। मेरी माँ को लड़का देखने में अच्छा लगा और कॉलेज में पढ़ने की बात सुनकर उसने रिश्ता तय कर दिया। देने – लेने पर कोई बात नहीं हुई। लड़के के पिता ने यही कहा कि, हमारा लड़का बैल नहीं है जिसका सौदा किया जाये।
माँ घर आने के बाद जितनी खुश थी उससे ज्यादा मैंने उसे चिंता में डूबे हुए देखा, लेकिन उसने मुझे कभी नहीं बताया कि कोई बात है। पर मैं इतना समझती थी कि यह अभागिन विपन्नता के अथाह सागर में गोते लगाकर मोती खोज रही है।
छः महीने बाद देवउठनी एकादशी को मेरी शादी हुई।
माँ ने खूब धूम-धाम से मेरा विवाह किया। मामा शादी के पन्द्रह दिन पहले आगये थे तो उन्होंने शहर से पूरा सामान लाकर रखा। माँ ने मेरे लिए सोने के कुछ आभूषण औऱ इनके लिए एक सोने की जंजीर बनवाई थी। सामान में टीवी, अलमारी, कूलर, सिलाई मशीन, कुकर, बहुत सा समान दिया।
वाहः मेरे मुँह से अचानक निकल गया…फिर ?
मैंने उत्सुकता से पूछा
अगले दिन सुबह मेरी विदाई हुई। माँ मुझसे लिपट कर इतनी रोयी कि लोगों को जबरन हम दोनों को अलग करना पड़ा। जितने भी लोग वहाँ मौजूद थे, सभी माँ की तारीफ़ करते हुए रोये जारहे थे। मैं रोते – रोते कब हीरापुरा आगयी पता ही नहीं लगा।
ससुराल में पहली रात्रि मेरे लिए मानो मेरी चिरसंचित आशाओं, अभिलाषाओं को साकार कर रही थी। मैं उसका स्पर्श पाकर ऐसे ही खिल गयी जैसे चन्द्रमा की रजत रश्मियों की छुअन से मानसरोवर की कुमुदिनी खिल उठती है। मेरे अधर दलों पर मानो प्रेम की ओस की शीतलता हो। किन्तु सूर्य की तेज के सामने प्रभात की ओस का अस्तित्व कहा ठहरता है।
दूसरे दिन ससुराल में खुशी ऐसे महक रही थी जैसे कार्तिक की भोर में हरसिंगार के फूल । मैं इसी महक की मदहोशी में डूबी थी, कि ये आये और बोले कि गजानन चाचा के साथ तुम्हारे घर से कोई आया है। मैं बाहर आँगन में आई ,तो गजानन चाचा के साथ हमारे मामा थे। बोले बेटा,अभी गाँव चलो कुछ जरूरी काम है, दादा ने बुलाया है। मैं सुनते ही ऐसे झुलस गयी मानो आकाश की बिजली मुझे छू कर निकल गयी हो। मैं मामा के साथ बिना देर किए हुए गाँव पहुँची। देखा , द्वार पर गाँव के लोग बैठे हुए हैं। मैं सीधे भीतर गयी, आँगन में पड़ोस की औरतें बैठी दादी के साथ रो रही थीं। देखा तो माँ इस दुनिया से जा चुकी थी…
डॉ. शशिवल्लभ शर्मा