ग़ज़ल
इश्क से बढ़कर ज़माने में दुआ कुछ भी नहीं।
इश्क़ मज़हब,इश्क़ ही रब, है खुदा कुछ भी नहीं।
रोज़ ख़्वाबों में मुलाकातें हमारी हो रही,
मत कहो कि अब हमारा राबता कुछ भी नहीं।
मौत की हर दिन लड़ाई लड रहा हूं ज़िंदगी,
आगे इसके तेरा मुझसे सामना कुछ भी नहीं।
जी रहे हो ज़िंदगी तो ज़िंदगी जैसी जियो,
ग़मज़दा क्यों जी रहे हो फायदा कुछ भी नहीं।
फूल,कलियां,बाग,खुशबू, तितलियां सब खो गई,
सिर्फ पतझड़ रह गया बाकी बचा कुछ भी नहीं।
हर दिशा फैली रहे अम्नो-अमां की खुश्बूऐं,
इससे ज्यादा और ‘जय’अब चाहता कुछ भी नहीं!
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’