कविता

ग्रहण…. मानते हैं

प्रकृति के ,
 प्राकृतिक चलन पर।
   कितने विरोधाभास उठाते हैं।
 ग्रह -नक्षत्रों को ,
  पढ़ने की बात करते हैं।
    लेकिन ……….???
      अपने से ही,
         अनजान रह जाते हैं ।
ग्रहण ….मानते हैं।
   कितने अनिष्ट ग्रहों की ,
       सूची को गढ़ जाते हैं ।
           लेकिन अपनी सोच पर,
              अंधविश्वास के लगे,
 ग्रहण का कोई हल  नहीं पाते हैं।
        ग्रहण ……मानते हैं।
           भगवान….. मानते हैं ।
              सब अच्छा …करता है।
         यह …….भी मानते हैं ।
       फिर …..बुरे पर,
            तिलमिलाते हैं।
              बुरा ….. क्या है।
 अपनी सहूलियत के लिए ,
     क्यों ………हमारे ,
       संवाद बदल जाते हैं।
 शायद…… हम,
    भगवान को भी,
      आधा ही मानते हैं।
 अजीब ढोंग अोड़ लेते हैं ।
     खुद प्रश्न देकर ,
        खुद उत्तर गढ़ लेते हैं ।
जब सहूलियत का,
    प्रश्न आता है।
      हम बीच वाला,
       रास्ता पकड़ लेते हैं ।
जबकि ………हम सब,
   अपनी सहूलियत से ही,
      अपने फायदे के लिए ,
         ग्रहण करते  हैं।
—  प्रीति शर्मा “असीम”

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- [email protected]