ग्रहण…. मानते हैं
प्रकृति के ,
प्राकृतिक चलन पर।
कितने विरोधाभास उठाते हैं।
ग्रह -नक्षत्रों को ,
पढ़ने की बात करते हैं।
लेकिन ……….???
अपने से ही,
अनजान रह जाते हैं ।
ग्रहण ….मानते हैं।
कितने अनिष्ट ग्रहों की ,
सूची को गढ़ जाते हैं ।
लेकिन अपनी सोच पर,
अंधविश्वास के लगे,
ग्रहण का कोई हल नहीं पाते हैं।
ग्रहण ……मानते हैं।
भगवान….. मानते हैं ।
सब अच्छा …करता है।
यह …….भी मानते हैं ।
फिर …..बुरे पर,
तिलमिलाते हैं।
बुरा ….. क्या है।
अपनी सहूलियत के लिए ,
क्यों ………हमारे ,
संवाद बदल जाते हैं।
शायद…… हम,
भगवान को भी,
आधा ही मानते हैं।
अजीब ढोंग अोड़ लेते हैं ।
खुद प्रश्न देकर ,
खुद उत्तर गढ़ लेते हैं ।
जब सहूलियत का,
प्रश्न आता है।
हम बीच वाला,
रास्ता पकड़ लेते हैं ।
जबकि ………हम सब,
अपनी सहूलियत से ही,
अपने फायदे के लिए ,
ग्रहण करते हैं।
— प्रीति शर्मा “असीम”