गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

हाथ अपने उठा के बैठा हूं,
रब से अर्जी लगा के बैठा हूं।

नींद उनको कहीं न लग जाए,
ख़्वाब सारे जगा के बैठा हूं।

दर्द दिल का कहीं न पढले वो,
इसलिए मुस्करा के बैठा हूं।

आजमाना न तिश्नगी मेरी,
मैं समुंदर सुखा के बैठा हूं।

जितनी तूने कमाई जीवन भर,
उतनी तो मैं लुटा के बैठा हूं।

हिज्र की रात में सितारों को,
दर्द दिल का सुना के बैठा हूं।

तेरे आने का मुंतज़िर है ‘जय’,
लाख अरमां सजा के बैठा हूं।

— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से