हर युग में, मैं छली गई हूँ
काली, दुर्गा, सरस्वती नहीं हूँ, मैं साधारण सी नारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।
जिम्मेदारी, मुझ पर डालीं।
काम सौंप दिया, कह घरवाली।
अधिकार सब, रखे पुरूष ने,
कर्तव्यों की, थमा दी, प्याली।
संस्कृति का भी भार बहुत है, थामो तुम, मैं हारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।
पूजा मुझको, नहीं, चाहिए।
थोड़ा सा, सम्मान चाहिए।
मन की कहे, मन की सुने,
ऐसा पति का प्यार चाहिए।
संस्कार, नैतिकता, लज्जा, थामो तुम, मैं मारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।
परमेश्वर नहीं, पति चाहिए।
स्वर्ग नहीं, कुछ हँसी चाहिए।
निर्णयों में, भागीदारी दे,
नर की ऐसी, मति चाहिए।
प्रेम, विश्वास, सम्मान मिले बस, फिर देखो, मैं थारी हूँ।
हर युग में, मैं छली गई हूँ, प्रेम से कहकर प्यारी हूँ।।