सूर्य समान प्रकाशवान तथा अंधकार से रहित ईश्वर को हम जानें
ईश्वर है या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर ‘ईश्वर है’ शब्दों से मिलता है। ईश्वर होने के अनेक प्रमाण हैं। वेद सहित हमारे सभी ऋषि आप्त पुरुष अर्थात् सत्य ज्ञान से युक्त थे। सबने वेदाध्ययन एवं अपनी ऊहापोह शक्ति से ईश्वर को जाना तथा उसका साक्षात्कार किया था। यजुर्वेद 31.18 मन्त्र ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्। तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यते ऽयनाय।।’ में स्पष्ट व निभ्र्रान्त रूप में, न किसी मनुष्य, न धर्माचार्य और न किसी ऋषि ने अपितु इस सृष्टि के रचयिता और संचालक, मनुष्य आदि सभी प्राणियों एवं वनस्पति जगत के उत्पत्तिकर्ता जगतपति ईश्वर ने बताया है कि मनुष्य ईश्वर को जानता है, जो नहीं जानता है वह प्रयत्न करने से जान सकता है। वह ईश्वर अन्धकार व अज्ञान से सर्वथा रहित तथा सूर्य के समान प्रकाशमान व ज्ञानवान है। संसार की किसी प्राचीन पुस्तक में ईश्वर वेद के समान ऐसे निश्चयात्मक वचन देखने व पढ़ने को नहीं मिलते। जो मतों की पुस्तकें लोगों द्वारा मान्य हैं उनमें ईश्वर विषयक निश्चयात्मक ज्ञान-विज्ञान तथा तर्क व युक्ति से सिद्ध ज्ञान प्राप्त नहीं होता। सभी पुस्तकें ईश्वर के विषय में मनुष्य को प्रायः भ्रमित करती हैं। वेद ही सबसे प्राचीन ज्ञान विज्ञान का पुस्तक है। वेदों का प्रकाश अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य तथा अंगिरा की आत्माओं में ईश्वर की प्रेरणा द्वारा हुआ था। यह ऋषि वेदज्ञान प्राप्त करने से पूर्व न तो कोई भाषा जानते थे न उन्हें इस सृष्टि व अपने कर्तव्यों का ही कुछ ज्ञान था। इसीलिये परमात्मा को सृष्टि के आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि में ही उत्पन्न सभी मनुष्य वा स्त्री-पुरुषों को ज्ञान देने की आवश्यकता हुई थी। परमात्मा ने ऋषियों को यह ज्ञान अपनी सर्वश्रेष्ठ भाषा वैदिक संस्कृत में दिया था। उन ऋषियों को वेदार्थ भी ईश्वर ने ऋषियों की आत्मा में प्रेरणा द्वारा ही प्रकाशित किया था व जनाया था। इस प्रकार वेदों का आविर्भाव होने के बाद से ऋषियों ने सृष्टि में वेदों का प्रचार किया। अमृत तुल्य वेदज्ञान को संसार की अमूल्य निधि मानकर हमारे वैदिक धर्मी पूर्वजों ने इसकी प्राणपण से रक्षा की और इसमें किसी प्रकार का विकार व न्यूनता उत्पन्न नहीं होने दी। अनेक ग्रन्थों की रचना कर उन्होंने वेदाध्ययन करने में जिज्ञासुओं की सहायता की है। सृष्टि के आरम्भ से आज तक असंख्य व अगणित ग्रन्थ व पुस्तकें रची गईं हैं जो महत्वपूर्ण रही होंगी परन्तु मनुष्यकृत उन रचनाओं की रक्षा नहीं हो सकी। इसके विपरीत हमारे ऋषियों ने 1.96 अरब वर्षों से वेदों की रक्षा करके विश्व के इतिहास में एक ऐसा अध्याय जोड़ा है जिसकी किसी से कोई तुलना नहीं है।
यजुर्वेद के मन्त्र ‘वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्’ के अर्थ पर विचार करना भी उचित होगा। इस मन्त्र में परमात्मा ने ज्ञान देते हुए मनुष्यों को शिक्षा दी है कि मनुष्य ने जान लिया है कि परमात्मा है, उसे वेद का अध्येता जानता है, वह परमेश्वर महान् है, सूर्यवत् प्रकाशवान है, अन्धकार व अज्ञान से परे है, उसी को जानकर मनुष्य दुःखदायी मृत्यु से तर सकता है। मृत्यु से बचने और अभीष्ट स्थान मोक्ष को प्राप्त करने का इससे भिन्न दूसरा मार्ग नहीं है। इस वेदार्थ से स्पष्ट है कि मनुष्य ईश्वर को जान सकता है और घोषणापूर्वक कह भी सकता है कि उसने ईश्वर को जान लिया है। महर्षि दयानन्द के जीवन में यह बात स्पष्ट होती है कि वह ईश्वर को यथार्थरूप में जानते थे। उन्होंने पूना सहित देश के अनेक स्थानों पर ईश्वर की सिद्धि पर व्याख्यान भी दिये थे। सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में ईश्वर के सत्यस्वरूप व गुण, कर्म, स्वभाव सहित ईश्वर विषय को विस्तार से स्पष्ट किया है जिससे ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है।
वेदमन्त्र के अनुसार ईश्वर सूर्य के समान प्रकाशमय है। वस्तुतः सूर्य को बनाने वाला तथा उसे प्रकाश से युक्त करने वाला परमात्मा ही है। यदि ईश्वर सूर्य को न बनाता और उसे प्रकाशवान न करता तो न तो सूर्य होता और न ही प्रकाश। ऐसी स्थिति में यह संसार भी न होता। अतः सूर्य जैसे विशाल ग्रह को बनाना और उसे प्रकाश से युक्त करना एकमात्र ईश्वर का ही कार्य है। इससे ईश्वर सर्वशक्तिमान सिद्ध होता है। प्रकाश की उपमा ज्ञान से दी जाती है। यद्यपि प्रकाश जड़ पदार्थ है और ज्ञान चेतन का गुण होता है परन्तु ज्ञान का भी अपना प्रकाश होता है जो अन्धकार को दूर करने की भांति अविद्या व अज्ञान सहित अधर्म, अन्याय, अत्याचार व अभाव आदि को दूर करने में समर्थ होता है। जिस प्रकार सूर्य का प्रकाश पूरे संसार के प्राणियों को उनके चर्मचक्षुओं से सभी सांसारिक पदार्थों के दर्शन कराता है उसी प्रकार से ईश्वर ज्ञान व प्रकाश से अविद्या, अन्धकार तथा अधर्म को दूर कर धर्म का प्रकाश भी करता है। विद्या व प्रकाश से युक्त परमात्मा सर्वान्तर्यामी है। वह हमारी आत्मा में व्याप्त है अथवा बैठा हुआ है और हमारे अधर्म करने पर भय, शंका व लज्जा उत्पन्न करता है। वही परमात्मा मनुष्य के द्वारा धर्म के काम करने पर उन्हें प्रेरित व उत्साहित करने सहित आनन्द व निःशंकता भी उत्पन्न करता है। इससे आत्मा के भीतर ईश्वर नाम की सत्ता व शक्ति का होना प्रत्यक्ष सिद्ध होता है। यदि ईश्वर न होता तो हमारी आत्मा में अधर्म का काम करते हुए भय, शंका व लज्जा का उत्पन्न होना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार धर्म के काम करते हुए भी निर्भियता, निःशंकता तथा आनन्द की प्रेरणा का होना भी असम्भव था। अतः ईश्वर है और वह संसार को बनाकर मनुष्य आदि प्राणी व वनस्पति जगत को भी बनाता है। वह संसार में प्रकाश उत्पन्न करने के साथ हमारी आत्मा से भी अज्ञान के तिमिर को दूर कर वेदों के द्वारा ज्ञान के प्रकाश को उत्पन्न करता है व उसने ऐसा किया है।
वेदमंत्र में ईश्वर ने हमें यह भी बताया है कि ईश्वर के सत्यस्वरूप को जानकर ही मनुष्य मृत्यु से तर सकता है। मृत्यु से सबको भय लगता है। ईश्वर को जानने व उपासना से मनुष्य मृत्यु के भय से मुक्त हो सकता है। मृत्यु से पार जाने अर्थात् जन्म-मरण से छूट कर अमृत व मोक्ष की प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है। जिस मनुष्य को भी बार-बार जन्म व मृत्यु से बचना है तथा अमृत व आनन्दमय मोक्ष की प्राप्ति करनी है, उसे ईश्वर को जानना व उसके आदित्यस्वरूप की उपासना करनी ही होगी। हम महापुरुषों की जीवन में देखते हैं कि जब उनका मृत्यु का समय आया तो वह घबराये नहीं अपितु उन्होंने ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना करते हुए अपने शरीर का त्याग किया। महर्षि दयानन्द का मृत्यु का दृश्य तो एक आदर्श दृश्य है। उन्होंने मृत्यु के दिन नाई को बुलाकर क्षौर कर्म कराया था। दीपावली के दिन सायंकाल अपने सभी शिष्यों से वार्ता कर उनको वेदमार्ग पर चलते हुए जीवन की उन्नति का सन्देश दिया था और ईश्वर को जीवन में सदैव स्मरण रखने और पापों से बचने की प्रेरणा अपने आचरण से दी थी। मनुष्य की आत्मा को बल भी ईश्वर की उपासना व भक्ति से ही प्राप्त होता है जिससे वह मृत्यु रूपी विपत्ति में भी घबराता नहीं है अपितु मृत्यु को भी ईश्वर से मिलने व अपने जर्जरित शरीर का त्याग कर कर्मानुसार श्रेष्ठ योनि में जन्म व अमृतमय मोक्ष का अनुमान करता है। इससे उत्तम कोई सिद्धान्त, विचार व मान्यता संसार में नहीं है। अतः सबको वेद के इस मन्त्र के अनुसार प्रकाशमय ईश्वर के सत्यस्वरूप की अपनी आत्मा में ध्यान लगाकर उपासना करनी चाहिये और मृत्यु के समय प्रसन्नता व शान्ति के साथ उसका वरण करना चाहिये। ऐसे मनुष्य का निश्चय ही कल्याण होता है।
परमात्मा का सत्यस्वरूप भी हमें वेदों व ऋषियों के ग्रन्थों उपनिषद, दर्शन, सत्यार्थप्रकाश, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों से मिलता है। इन सबके आधार पर ऋषि ने आर्यसमाज का दूसरा पहला व दूसरा नियम बनाया है। दूसरा नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ प्रथम नियम है ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सब का आदि मूल परमेश्वर है।’ ईश्वर विषयक प्रचुर सामग्री ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों में मिलती है। इससे ज्ञात होता है कि ईश्वर सर्वज्ञ है। वह जीवात्माओं को उनके कर्मों के अनुसार जाति, आयु और भोग प्रदान करते हुए जन्म देता है। जन्म-मरण का चक्र मृत्यु व संसार की प्रलय तक चलता जाता है। पाप कर्मों को करने पर जीवात्मा को नीच योनियों पशु-पक्षी आदि में जन्म मिलता है। मनुष्य अष्टांग योग का अभ्यास कर आत्मा और ईश्वर का साक्षात्कार कर सकता है। ईश्वर का प्रत्यक्ष होने पर अविद्या व सभी प्रकार के भ्रम दूर हो जाते हैं। मनुष्य का आत्मा मुक्त होकर ईश्वर के सान्निध्य को प्राप्त कर आनन्द का भोग करता है। इसे मोक्ष कहा जाता है। वेद हमें यह भी बताते हैं कि यह संसार ईश्वर का बनाया हुआ है। वह इस जगत् में सर्वव्यापक है। हमें यदि कल्याण को प्राप्त होना है तो हमें संसार के पदार्थों का भोग त्याग की भावना से करना होगा। परिग्रह न कर अपरिग्रह को अपनाना होगा। लोभ व लालच में नहीं फंसना है। यह धन तो हम जन्म के समय साथ लाये हैं और न मृत्यु के समय यहां से ले लायेंगे। इस रहस्य को जानकर हमें जीवन जीना है। यह धन संखस्वरूप परमात्मा का है। हम जीवन में त्यागपूर्वक व्यवहार करते हुए सुख के साधनों के पात्र बन सकते हैं। हमारा वर्तमान एवं भावी सभी जन्म भी सुखों से युक्त हो सकते हैं। वेद हमें ईश्वर का यथार्थ ज्ञान कराते हैं। वेदाध्ययन कर हम घोषणा कर सकते हैं कि मैंने ईश्वर को जान लिया है। वह सूर्य के समान प्रकाशमान तथा अज्ञान व अन्धकार के तिमिर से सर्वथा रहित है। उस ईश्वर को जानकर मैं व सभी मनुष्य मृत्यु के दुःख से पार अर्थात् मोक्ष को प्राप्त हो सकते हैं। मृत्यु के भय की औषध ईश्वर का ज्ञान व उसकी उपासना ही है। अन्य कोई मार्ग सुखी होने व मृत्यु के भय से बचने तथा मोक्षानन्द को प्राप्त करने का नहीं है। ओ३म् शम्।
— मनमोहन कुमार आर्य