गजल
जब भी देखता हूँ आईने में अपना चेहरा,
न जाने क्यूँ मुझे यह शख्स अनजान सा लगता है,
जानता हूँ मैं की यह प्रतिरूप है मेरा,
फिर भी क्यूँ मुझे मेहमान सा लगता है,
मेरा ही बन कर सदा रहता है मेरे संग,
फिर क्यूँ मुझे घर वीरान सा लगता है,
सदा बसाया था इसे मैंने अपने ही दिल में,
फिर भी यह दिल सुनसान सा लगता है
कब सजेगा संवेरेगा आईने में यह चेहरा,
यह मुझे अधूरा अरमान सा लगता है,
जब भी इसे देखा है परेशान सा देखा है,
मुझे अपनी ज़िन्दगी पे अहसान सा लगता है,
यह मुस्करा दे तो अर्पित है मेरा सब कुछ इस पर,
मुझे यह अपना “दिलो जान” सा लगता है .
—- जय प्रकाश भाटिया