कविता

ताजमहल

न जाने कब से
चुपचाप खड़ा है
ताजमहल
और
न जाने कब से
चुपचाप बह रही है
जमुना
कौन कहता है
पत्थरों को अहसास नहीं होता
कोई पूछ कर तो देखे
ताजमहल से
कि जब
जमुना का पानी
उसे छू कर गुज़रता है
तो क्या
तरंगित नहीं होता होगा ताजमहल ?
और जब
चाँदनी रात में
जमुना के पानी में
अपना अक्स देखता है
तो क्या
इतराता नहीं होगा वो ?
और जमुना भी
खुद में
ताज का अक्स समो कर
हो जाती होगी
भाव विभोर ?
मानो दोनों
एक दूजे को
कर रहे हों
आत्मसात !
हो रहे हों
आलिंगन बद्ध !
चुपचाप !
लेकिन
चांद
सब कुछ देखता है
खामोशी से ।
वो तब भी गवाह था
मुमताज़ और शाहजहाँ
के प्यार का
वो आज भी गवाह है
कि
प्रेम
कभी नहीं मरता
सिर्फ
शक्ल बदलता है
जैसे
हम तुम
और
हमारा
प्यार !!
@नमिता राकेश