मेरी अध्यापन की पहली नौकरी का पहला वर्ष पूरा हो चुका था। अब मैं पक्की अध्यापिका घोषित कर दी गयी थी। जहां नौकरी मिली थी वह शिक्षण संस्था बहुत निम्न कोटि की मानी जाती थी। लंदन के क्षेत्रों के अनुसार संस्थाओं का स्तर भी निर्धारित होता है। यह लड़कों का स्कूल था। इसमें अधिकाँश बच्चे मजदूर वर्ग के थे जिनको अपने जीवन की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों से समझौता करके रहना पड़ता था। नाम को स्कूल में वह सब सुविधाएं थीं जो अधिक उन्नत या कहिये समृद्ध क्षेत्र के स्कूलों में होती हैं। बालकों को भी सरकार की ओर से उचित भत्ता आदि मिलता था। परन्तु यह समाज नियम विहीन था। माता पिता की दृष्टि ही सूखी रूखी होती थी। पैसा कमाना अधिक जरूरी होता था। क़ानून के अनुसार अनिवार्य शिक्षा सोलह वर्ष तक होती थी। कई बार जन्मतिथि के अनुसार बालक परीक्षा के बीच से उठ जाते थे और बिना कुछ कहे स्कूल छोड़ देते थे।
उस काल में पुरुष अध्यापकों का अभाव भी था। अतः जिस तिस को शिक्षक की नौकरी दे दी जाती थी। स्वयं हमारे प्रधानाचार्य भारत से अवकाश प्राप्त अंग्रेजी सेना के कर्नल थे जिनकी मूल शिक्षा नगण्य थी। उपाध्यक्ष जी एक बढ़ई थे जो सुदूर स्कॉटलैंड से लंदन काम की तलाश में आये थे। म्युनिस्पैलिटी के दफ्तर में बैठे अपनी बारी का इन्तजार कर रहे थे। सारा दिन बीतने पर एक अधिकारी आया और उनसे बोला चलो मेरे संग | .वह पीछे पीछे गए तो उस दफ्तर के पीछे एक नया स्कूल था। अधिकारी ने कहा बस तुम आज से अध्यापक हो। वह हकलाए .केवल बढ़ई का काम सीखा है। उसपर वह हंसा और बोला बेंत तो मार सकते हो, और क्या चाहिए। यह सं ६५ की बात है।
स्कूल में लड़के पढ़ने लिखने वाले तो इक्के दुक्के होते थे अतः उनको तरह तरह की योग्यताएं सीखने का इंतजाम था जैसे धातु का काम ,बिजली का काम ,बढ़ईगीरी आदि। यह जनता छोटे घरौंदों में रहने वाली थी इसलिए स्कूल में खेलकूद पर अधिक ध्यान दिया जाता था क्योंकि उनके निजी जीवन में उसका ,जगह का अभाव था।
ऐसा ही विभाग था कला का। यहां एक वयोवृद्ध अंग्रेज इंचार्ज थे जो अपने गर्म दिमाग के लिए जाने जाते थे इनका नाम था मि. एंकर | परन्तु कोई भी उनको इस नाम से नहीं बुलाता था। उम्र के कारण शरीर भारी था अतः बालक उन्हें मि. टैंकर या बंकर आदि बुलाते थे उनकी पीठ पीछे। कभी कभी ही उनको स्टाफ मीटिंग में देखा था मैंने।
नवम्बर मॉस में छिमाही इम्तिहान थे। मेरी ड्यूटी निरीक्षण की लगी। नौवीं कक्षा का भूगोल का पर्चा था जिसमे कई अंश कठिन थे। अध्यापकों को हुकुम था कि वे पूरा पर्चा पढ़कर सुनाएं | वही मैं कर रही थी की सहसा मि० एंकर कहीं से आये और पीछे से मेरे हाथ से पर्चा छीन लिया और गुर्राए यह मेरी जॉब है। तुम्हें किसने भेजा। शकल से ही तुम अध्यापिका नहीं लगतीं |
भरी सभा के सामने मेरा अपमान कर दिया। मैंने चुप चाप अपना रास्ता लिया और सीधे उपाध्यक्ष जी के कमरे में आई। कहा क्षमा कीजिये ,यदि कुछ अन्य काम हो तो बता दीजिये | वह गंभीरता से बोले आपने ड्यूटी का चार्ट नहीं पढ़ा क्या ? .कमरा नंबर ९ में आप निरीक्षण कर रही हैं मेरे हिसाब से। मैंने सहज भाव से कहा की वहां कोई और होना चाहिए था आपने ध्यान नहीं रखा। उपाध्यक्ष जी मेज पर मुक्का मारते हुए दांत पीसने लगे। चिल्लाये ,मैं इस स्टाफ के बुड्ढों से तंग आ गया हूँ। जाओ बड़े हॉल में तुम भी लग जाओ। उनको मैं समझ लूँगा। अब मेरी जुबान कुछ खुली तो मैंने कहा इसके साथ ही उनसे पूछ लेना कि टीचर लगने के लिए मुझको क्या करना होगा। अब तो जो उसकी हंसी छूटी तो पूरा स्कूल गूँज उठा।
खैर इसके बाद मि ० एंकर कभी नहीं मिले। अगले वर्ष अक्टूबर मास में उनका पैग़ाम आया। एक स्त्री ,जिसका नाम मेरियन था मेरी कक्षा ढूंढती हुई आई। उसने कहा कि कला विभाग में तुमको आधे दिन के लिए आना है। तुम्हारे जो पीरियड लगे हुए हैं उनको कोई और देखेगा . उपाध्यक्ष ने इंतजाम कर दिया है। कहकर वह चली गयी। मैं विमूढ़ रह गयी। क्या कोई और खता हो गयी मुझसे ? सारी दुनिया में मैं ही क्यों ? फिर भी मैं ठहरी ” झांसी की रानी ” | लंच के बाद तीन साल में पहली बार कला विभाग की ओर रुख किया।
यह एक बहुत बड़ा कांच की छत वाला हॉल था। एक ओर लेध लगी थी धातु के काम के लिए। एक ओर पेंटिंग का सामान करीने से लगा हुआ था। इसी तरह एक आलमारी में बिजली की तारें कनेक्टर्स आदि। और भी ना जाने क्या क्या। मेरे अंदर घुसते ही एक फक्कड़ सी आवाज़ गूंजी ,” कम ऑन इन ! यू आर आवर गेस्ट टुडे !! ” मि ० एंकर एक कोने में आराम कुर्सी में विराजमान थे और खुली मुस्कान मेरे स्वागत के लिए उठ कर खड़े हो गए। इसके साथ ही उनके दोनों हाथ नमस्ते में जुड़ गए। मेरे भी। अच्छा लगा। यह कोना विचित्र पौधों से सजा था। एक ओर चौड़ी मेज़ पर कुम्हार का चाक रखा था। उसके साथवाली दीवार में ताक जेड थे जिनपर अलग अलग क्लासों के नाम लिखे थे। दो तीन पर गोल गोल ज्योत के आकार के नन्हें नन्हें बर्तन गधे हुए सूखने के लिए रखे थे। ऊपरी भाग में खुलनेवाली खिड़की थी जो धुप और हवा के लिए खोली जाती थी। करीब दो गज़ दूर एक लोहे की तिजोरी नुमा आलमारी थी। मेरियन ने बताया कि यह kiln यानि आँवाँ था जिसमे बर्तन पकाये जाते थे। बड़ी बड़ी शिष्यों में रंग अभ्रक आदि करीने से रखे थे।
मेरियन चाय बना लाई जिसमे इलायची पडी थी। मुझे आश्चर्य तब हुआ जब उन दोनों ने भी वही चाय ढाली। मेरियन ही ज्यादा बातें कर रही थी। मि० एंकर ने स्कूल बनने के साथ ही सन साठ में यहां नौकरी शुरू की थी। इसके पहले वह भारत में थे किसी अंग्रेजी कंपनी में। कुम्हारी का काम उनका शौक था। मुझसे पूछा कि मैं भारत में कहाँ से हूँ। मैंने बताया कि उत्तर प्रदेश से तो उनकी बांछें खिल गईं। भारत की आज़ादी के पूर्व वह इलाहाबाद में एक थाने के प्रमुख दारोगा थे। उर्दू पढ़ना जानते थे। उनके पिता अंग्रेजी सरकार में सेना में थे। मिशनरी का ज़माना था। उनके दस अन्य भाई बहन अलग अलग माओं से पैदा हुए थे जो भारतीय थीं। अतः वह लोग एंग्लो इंडियन थे मगर उनकी माँ शुद्ध अंग्रेज थीं और अपनी धार्मिक उदारता में सबको मान्यता देती थीं हालांकि वह दूसरी औरतें घर का काम करती थीं। उनको अपने पद का बहुत गर्व था। दसियों नौकर चाकर ,खूब सारी भेंट , रोज़ाना अलग अलग तरह के खाने दावतें आदि की उन्हें याद आती थी। यहां क्या है ? सूप डबल रोटी और फीका गोश्त | उनको दाल चावल खाने की आदत थी क्योंकि पिता की स्त्रियां उन बच्चों को यही खिलाती थीं। उनको सभी तरकारियों के नाम याद थे जो अब इंग्लैंड में देखने को भी नहीं मिलती थीं। पूरी आलू बहुत पसंद थे।
मैंने कहा दो वर्ष से मैं यहां हूँ आपने पहले किसी से बात नहीं की। आपके ही विभाग में मि ० शर्मा लकड़ी का काम सिखाते हैं। आपको वह अच्छे से खिला सकते थे आपकी पसंद की चीज़ें। वह हंस पड़े। बताया कि वह दाल चावल स्वयं बना लेते हैं। जब तक पचता था वह बंगाली के यहां से गोश्त कबाब आदि ले आते थे। पुलाव पकौड़े वह बना लेते हैं मगर अब न वह खा पाते हैं न ही इतना काम कर पाते हैं। उम्र सत्तर आ गयी है इसलिए वह अब अवकाश ले रहे हैं। जाने से पहले वह मुझको कुछ देना चाहते हैं। मैंने उनके पौधों की तारीफ की थी अतः उन्होंने मुझे एक विशेष फूल का पौधा दिया जो सर्दी के मौसम में बाहर नहीं रह सकता। पर उनके पास जो जाती थी उसकी वह विशेष थी और सदाबहार थी। फिर उन्होंने दिवाली की बात की। तिस पर मैंने सुझाया कि बजाये गोल गोल अंगूठा खोल गढ़ने के यदि वह दिए बनाएं तो अधिक काम आ सकते हैं। तदनुसार अगली कक्षा के लड़कों से उन्होंने दीवे बनवाये | मेरियन ने उनपर कांच चढ़ा दिया जिससे वह पक्के हो गए।
आज तक यह दिए मेरे घर हर दिवाली में जलाये जाते हैं। सं ८० से सं २०२० आ गया। चालीस वर्ष गुजर गए। उस सरल व्यक्ति की याद मेरे घर बनी रहेगी। उनका दिया पौधा करीब बीस वर्ष तक ज़िंदा रहा मगर एक साल जब हम गर्मी में घूमने फिरने चले गए तो उसको किसी ने पानी नहीं दिया अतः वह सूख गया। उसकी कलम अनेकों ने मांगी। मि ० एंकर की याद में मैंने बहुतों को बांटी .