वुमन विथ माइंड
चित्रकार द्वारा कविता रचा जाना तथा कवयित्री द्वारा चित्र का सार्थक रूप देना ! एकसाथ प्रेमतृप्ति और सहवासतृप्ति रोज-रोज । कविता की ऊँचाई उतनी शिखरतम और उतनी ही प्रखरतम चित्रकृति की संवेदनाएँ भी, प्रासंगिकता के साथ-साथ ! अप्रासंगिक कुछ भी नहीं, क्योंकि देह को सवारीगाड़ी माना गया है, चाहे देह औरत की हो या मर्द का। कागज दंश है, फिर भी रोज-रोज इसे पाने की छटपटाहट है, क्योंकि भोगा हुआ यथार्थ सिर्फ कैनवास में उकेरने की चीज है । कैनवास व्यक्तिगत हो सकता है, किन्तु कागज तो सार्वजनिक वस्तु है, रहेगी । आरक्षित गाड़ी कागज की देह कतई नहीं हो सकती ! परंतु वहीं काव्यकला एक अवस्था है, तो चित्रकला अद्वितीय व्यवस्था । दोनों मर्मस्पर्शी, किन्तु उतने ही देहस्पर्शी भी । तभी तो दंश की देह समर्पित मानी गयी, जो अब भी मानी जाती रही है । फूलों की माँग उनकी सुंदरता लिए है, तो सुगंध के लिए भी । सुगंध आंतरिक स्थिति है, तो सुंदरता बाह्यस्थिति है, जो देह है और यह मूर्त्त है, चेतन है । सुंदरता क्षणिक है, फूल सूखने की भाँति, जबकि सुगंध को रोज-रोज पा सकते हैं । जो छोटे-छोटे बोतलों में बंद है ।
सुगंध यानी कैनवास केचित्र यानी इमरोज की कल्पनाएँ,
संवेदना यानी कागज पर कविता यानी अमृता की संवेदनाएँ !
संवेदना मर जाती है, किन्तु दंश सदैव बना रहता है, जबकि कल्पना अमूर्त्त रूप में उपस्थित रहता है, रोज-रोज !
क्या हर सुंदर वस्तु सचमुच में भयावह होती है ? क्या उनके लोप होने पर भी उनसे सृजित दंश बचा रहता है ?
किन्तु इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि सुंदर मृग का अंत सुगंध यानी कस्तूरी के कारण ही होता है !
कैक्टस का दर्द बाहरी आवरण के कारण है, भीतर तो मांसल अवशेष है, वहीं क्रोटन के पौधे में कोई दर्द परिलक्षित नहीं हो रहा है, परंतु अंदर ही अंदर वो घुट-घुटकर जीने को विवश हैं । क्रोटन का आस्वाद तीतापन जगजाहिर है । यह उनका विद्रोहात्मक दर्द है ।
एक दिन कागज और कैनवास में इसी संबंध में बहस छिड़ गई कि कौन है कैक्टस और कौन है क्रोटन ? दोनों एक-दूसरे को ऐसी-ऐसी संज्ञाओं से थोप रहे थे, किन्तु किसी के प्रति दोनों के पास कोई हमदर्दी थी नहीं !
यह ज्ञात होनी चाहिए कि यही तकरार अक्सर प्रेम अंकुरण से लेकर यौन स्फुरण में सहायक सिद्ध होती है । ऐसा ही हुआ और बहस का अंत हुआ । क्रोटन ऊपर चढ़ा था, कैक्टस नीचे दबी थी, सिहर रही थी । क्रोटन ने कैक्टस के काँटों की चुभन सहते हुए भी मर्द का भोगवाद के रूप में परिचय दिया । कैक्टस के भीतर का मांसल देह को क्रोटन ने खूब भोगा । कैक्टस के वक्ष में छिपी दो-दो पूनम की चाँद विहँस रही थी । आनंद का अतिरेक क्रोटन के उन अंगों में चर्म रोग पैदा कर रहा था यानी वीर्य स्खलन का अभिव्यंजनावाद जारी था ।
ऐसा अक्सर कैक्टस द्वारा आत्म समर्पण करने से उत्पन्न हुई । इस घटना का तर्क यही बताता है कि कागज का कैक्टस के रूप में आविर्भाव हुआ, तो कैनवास का क्रोटन के रूप में । दोनों की महत्वाकांक्षाएं देह में सिमट गई, एकाकार के सौजन्य से।
बहस का अंत यौन तृप्ति से हुआ, ऐसा कागज और कैनवास ने सिखाया। यौन तृप्ति दो विपरीतलिंगी देहों की नियति का अंत है और इस नियति में पति-पत्नी का देह उदाहरण बनते हैं, किन्तु कैनवास और कागज पति-पत्नी नहीं थी, प्रेमी-प्रेमिका भी नहीं थी । भड़ुवे और वेश्या की भांति भी कोई संबंध लिए नहीं था । यह देह सुख कोई बलात्कार भी तो नहीं था । मर्दखोर औरत या औरतखोर मर्द की परिभाषा भी इस परिधि में आते ! आखिरकार, दोनों में कौन-सा रिश्ता था ! पहेली कल भी थी, आज भी है और रहेगी बरसों तक ।
कविताओं का कैनवास पर छा जाना और चित्र का कागज पर उतर आना– जितनी सीधी पढ़ी जा सकती है, सोची नहीं जा सकती ! ….क्योंकि कैक्टस के नुकीले काँटों में दंश का राज है । दंश साम्राज्ञी बनी है, तो रखैल भी हो सकती है, किन्तु एक शर्त्त पर कि उनकी कोई सौतन न हो ! कागज पर इबादत के अलावा विकृत रचनाएँ भी लिखी जा सकती हैं । यूँ तो विकृत रचनाएँ दंश तो होती ही है, किन्तु इबादत भी कटु सत्य होने के कारण ‘दंश’ नामार्थ अभिहित हो पाई !
भौतिक-संबंध के बीच स्वच्छंदता हो और कोई समझौता नहीं हो, क्योंकि समझौते कोई न कोई ‘वाद’ में बँधे होते हैं, परंतु स्वच्छंदता सपाट होता है । जीवन की गाड़ी स्वच्छंदता की पटरी पर ही चल सकती है । खुले विचार, बेबाक टिप्पणी । विचारों का टकराना, टिप्पणियों का कुनमुनाना व चरमराना आदि तो लगा ही रहेगा, किन्तु बहस का अंत के लिए फ़ख़्त कालीन पर ही पसरी दो सिसकराती हुई देह का होना अत्यंत आवश्यक है । यौन-तृप्ति ही नीति-नियामक स्थिति में है, तब शीतयुद्ध का अंत भी यहीं है और इस स्थिति को क्रिया में लाया गया है, तो जैविक युद्ध के जीव समूह भी यौन तृप्ति के तत्वश: युद्ध को भूल चुके होंगे ! हर बार की तरह इसबार की यौन तृप्ति पर कसगज और कैनवास कुछ ज्यादा ही प्रसन्न थे ! बहरहाल, इनका कारण कथाकार भी नहीं जान सका है । दंश की प्रतिबद्ध स्थिति रोज-रोज कितनी हावी होती जा रही है, जानने के लिए कथान्त का इंतज़ार करना ही पड़ेगा !
कागज के स्पर्श मात्र से ही अमृता की याद हो आती है । यह स्मरणीय स्मृति सिर्फ इमरोज के अन्तस्थ आते-जाते हैं, रोज-रोज ! अमृता की सुंदरता भले ही दंश हो, किन्तु कैनवास की यही तो चाहिए । कैनवास के लिए मानसिक अविराम की बात तो चिरनिहित है । कागज की पसंद को कैनवास ने स्वीकारा । यह चालीस बरसों का गूढ़ रहस्य था । अमृता के चेहरे जितनी हसीन थी, खूबसूरत थी, उतनी ही मुश्किल भी थी, बल्कि यूँ कहिये कि मुश्किल ज्यादा ही थी । उनके चेहरे का भाव इतनी तेजी से बदलते थे कि कागज पर चढ़ रही उन शब्दों की भाँति , उन अनुच्छेदों की भाँति, जिनमें भावों का सहज मूल्यांकन करना बेहद जटिल था । अमृता का देह औरतीय देह अवश्य थी, किन्तु यह भी ज्ञात है कि यह कागजी देह थी- मुड़ी-तूड़ी, घिसी-पीटी ! इसके बावजूद उनमें नारीत्व आशा थी । फिर भी औरतीय पहेली इनमें समंजित थी ।
कहने को तो देवदासिन होती हैं, किन्तु किशोरी से प्रौढ़ा की तरफ बढ़ते ही वो अहिल्या बना दी जाती हैं और बाद में उसी आनंद में गोते लगाने लगती हैं ! फिर उसके बाद उनकी बिस्तर के इर्द-गिर्द देह, देह और देह कतारबद्ध और करबद्ध मुदा में दिखाई पड़ने लगे जाते हैं । तब उन देवदासिनों को देव की महानता नहीं, उनका देह दिखाई देने लगते हैं ! यह देह मर्द का देह है । मर्द का देह आसानी से वे रोज-रोज ‘इंद्रत्व’ लिए प्राप्त हो जाता है । जो कोरा कैनवास होता है । कैनवास को पाना मुश्किल नहीं है, जबकि इसपर बनाए गए चित्र महंगा होने लगे हैं, क्योंकि यह चित्र दंश है और दंश की सृष्टि कैसे हुई ? यह जान चुके हैं ! यही कारण है, दंश को धारण करनेवाली औरत को पाना बेहद मुश्किल है । औरत को पाना यानी उनकी देह को पाना, जबकि औरत और मर्द यानी दोनों एक-दूजे के प्रति यौनेच्छा में बराबर के अंशदार हैं । विशेष मर्द विशेष औरत की देह ढूढ़ते हैं, जबकि विशेष किस्म की औरत कई मर्दों के देह से चिपककर कविता रचती हैं । मर्द का कैनवास भी उन औरतों के नग्न देह को ही तवज्जो देता हसि । मकबूल फिदा का घोड़ा इन्हीं महत्वाकांक्षाओं में दौड़ लगाते दिख पड़ते हैं ! मोनालिसा के बाद कैनवास पर ‘वुमन विथ माइंड’ उतरी ही कहाँ ?